खलील की उलझन
1. खलील के चाचा का लड़का कौन था?उत्तर
उत्तर: (a) विक्रम
उत्तर
उत्तर: (a) बैटल के साथ लड़ाई में
उत्तर
उत्तर: (b) कैथोलिक
उत्तर
उत्तर: (a) सुन्नी मुसलमान
उत्तर
उत्तर: (d) सभी विकल्प
उत्तर
उत्तर: उसे समझ में नहीं आता
उत्तर
उत्तर: (c) मौजूदा व्यवस्था शांति की सबसे अच्छी गारंटी है
उत्तर
उत्तर: (d) सभी विकल्प
उत्तर
उत्तर: (d) सभी विकल्प
उत्तर
उत्तर: (a) राष्ट्रपति चयन
बेरूत शहर में खलील नाम का एक लहराइल वाला बालक रहता था। उसकी आँखों में सपने झिलमिलाते थे और दिल में देश के लिए जुनून ज्वाला भड़काता था। वह बड़ा होकर राष्ट्रपति बनना चाहता था, लेबनान का मुखिया बनकर अपने देश को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाना चाहता था। लेकिन उसके रास्ते में एक बड़ा पहाड़ खड़ा था, जिसका नाम था – धर्म!
खलील के माता-पिता अलग-अलग समुदायों से थे। पिता तो थे रूढ़िवादी ईसाई, लेकिन माँ सच्ची मुसलमान। लेबनान में ऐसे मेल बहुत थे, खूबसूरत परंपराओं का ताना-बाना बुना था। पर इतिहास के गलत मोड़ पर धर्म एक खूंखार तलवार बन गया था, जिसने भाई-भाई को लड़ा दिया था। एक खौफनाक गृहयुद्ध ने पूरे मुल्क को झकझोर दिया था, जिसकी भयावह यादें खलील के चाचा की शहादत में अब भी जिंदा थीं।
गृहयुद्ध के बाद शांति लौटी, लेकिन उसके साथ लेबनान के नेताओं ने एक अनोखी व्यवस्था बनाई। सत्ता का तराजू धर्म के हिसाब से तौला जाने लगा। कैथोलिक ईसाई ही राष्ट्रपति बन सकता था, प्रधानमंत्री का तख्त मुसलमानों के लिए था। ये सब धर्मों के बीच शांति का एक नाजुक समझौता था, जिसकी कीमत खलील को हर रोज चुकाना पड़ता था।
वह सोचता था, “मैं तो आखिर हूँ क्या? ईसाई भी नहीं, मुसलमान भी नहीं! मेरा सपना तो सिर्फ लेबनान की भलाई का है, धर्म के बंधनों में क्यों उलझूँ?” पर सत्ता का दरवाजा उसके लिए हमेशा बंद ही रहता था।
एक दिन, जब खलील अपनी उलझन के जंगल में खोया हुआ था, उसे अपने दादा की बातें याद आईं। दादा कहता था, “पहाड़ को तोड़ पाना मुश्किल है, लेकिन रास्ता बदलकर चढ़ाई की जा सकती है।” खलील की आँखों में उम्मीद की चिंगारी लौटी। “शायद धर्मों की दीवारें तोड़ना मुश्किल है, लेकिन मैं तो ऐसा राज बनाऊंगा जहाँ हर किसी को उसकी योग्यता का हक मिले, जहाँ धर्म न बोलें, बल्कि सिर्फ इंसानियत गूंजे!”
यह सोचकर खलील ने अपनी मुहिम शुरू की। उसने साथियों को जोड़ा, लोगों को समझाया कि लेबनान को धर्म के बंधनों से मुक्त होना चाहिए। उसने बताया कि असली ताकत तो योग्यता और ईमानदारी में होती है, न कि मंदिर-मस्जिद में।
धीरे-धीरे, खलील की आवाज दूर-दूर तक पहुँचने लगी। हर गली में, हर चौक पर उसकी बात सुनी जाने लगी। लोगों को एहसास हुआ कि खलील की सोच में सच्चाई है, एक नए लेबनान की आशा है।
लेकिन सब रास्ते इतने आसान नहीं होते। पुराने तौर-तरीकों के हिमायती बौखला गए। खलील को खतरे, दबाव, डरावे का सामना करना पड़ा, लेकिन वह डगमगाया नहीं। वह जानता था कि जब हवा का रुख बदलने वाला होता है, तो हर पेड़ हिलता है।
आखिर में, लेबनान के लोगों ने चुनाव किया। उन्होंने धर्म के पंजे से सत्ता को मुक्त करने का फैसला किया। एक नए जहान की खुशबू हवा में घुलने लगी, जहाँ खलील के जैसे हज़ारों सपनों को उड़ान मिली।
यह कहानी अधूरी है, सवाल अनसुलझा है। क्या लेबनान धर्म के बंधनों को तोड़ पाएगा? क्या खलील का सपना Wirklichkeit बनेगा