राजस्थान कला एंव संस्कृति
राजस्थान की सामाजिक व्यवस्था:-राजस्थान में भारत के विभिन्न जातियों नें आकार यहाॅ की वीर भूमि को अपना अधिवास बनाया है। तथा अपनी रीति रिवाजों प्रथाओं वेष भूषाओं का राजस्थानी सभ्यता में समावेष किया तथा राजस्थानी रीति रिवाजों प्रथाओं व भूषाओं कांे अपनाया राजस्थान सभ्यता व संस्कृति अति प्राचीन होने के साथ साथ वैदिक परम्पराओं का निवाहन करती आयी है। राजस्थान की रिति रिवाज व प्रथाए निम्न है।।
जन्म सें संम्बन्धित रिति रिवाज:-
गर्भादानः-इस रिवाज के अन्तर्गत जब नवविवाहिता प्रहली बार गर्भधारण करती है। उसकी जानकारी परिवार के सदस्यो को होती है। तो परिवार में खुषी का आलम जागृत होता है।
बच्चा जन्म:- जब गर्भ धारित महिला बच्चे को जन्म देती है। तब वह जच्चा कहलाती है। तथा पुत्र के जन्म पर काॅसे की थालें बजाई जाती है। जों लडके कें जन्म की सूचना होती है। जच्चा गृह में तलवार रखी जाती है। जो बच्चे को दृढ एंव संघर्षमयी बनाने का प्रतीक है।
विवाह मानव जीवन का एक आवष्यक अंग तथा आधुनिक राजस्थान में चट मगनी पट विवाह के विपरीत कई रस्मों को सम्पन्न करना आवष्यक होता है।
सगाई:- जब किसी व्यक्ति को अपनी पुत्री के विवाह हेतु कोई लडका पसंद आ जाता है। तब उसे विवाह हेतु पक्का किया जाता हैं । जिसमे समाज के कुछ व्यक्तियों के समुह के बीच लडके के हाथ पर कुछ पैसा व नारियल रखे कर रोका जाता हैं इसे सगाई कहते है।
टीका:-इस रिवाज के अन्र्तगत वर पक्ष वाला व्यक्ति अपने सगे संबंधियों दोस्मो को आंमत्रित करता है। तथा वधु पक्ष वाला व्यक्ति वहाॅ पहुॅच कर अपने सामथ्र्य के अनुसार वर को कुछ भेंट करता है।
बान बैठना:- इस रिवाज के अंतर्गत वर व वधु को अपने अपने घर पर हल्दी व आटे का उबटन (हल्दी मलना ) किया जाता है। जिससे वर व वधु में सुन्दरता का निखार आता है।
थरी:- बरी पलडा -विवाह हेतु वर पक्ष वधु के लिए जो कपडा व जेवर लाता हैं
मोड बांधना:- इस रस्म केे अंतर्गत वर को उबटन के बाद नये कपडें व सहारा (कलंगी)पहनाई जाती है।
काकन-डोरा:-इस रस्म के अन्तर्गत वर व वधु के दाॅहिने हाथ में एक डोरी बाॅधी जाती है। जिसमें एक कौंडी लोहे का छल्ला आदि बंधे होते है। जिसे विवाह सम्पन्न होने के बाद वर पक्ष के घर एक दुसरे के द्वारा खोला जाता है।
सामेला:- इस रस्म के अंतर्गत जब बारात वधु पक्ष के घर पहुॅचती है। बारात का स्वागत सत्कार करते है। इसे सामेला या ठुमाव कहते है।
मिलनी:- इस रस्म के अंतर्गत प्रत्येक बाराती को वधु पक्ष की तरफ से स्मृति रूप में कुछ धन दिया जाता है।
बंढार:- इस रस्म के अन्तर्गत विवाह के दुसरे दिन वधु पक्ष अपने सगें सम्बंधियों को आमांत्रित कर एक सामुहिक प्रीतिभोज का आयोजन करता है।
गौना:-इस रस्म के अन्तर्गत वधु की विदाई होती है। जब वधु बडी होती है। तो विवाह अवसर पर ही ससुराल भेज दी जाती है। मगर जब वधु की आयु कम होती है। तो उसे कुछ वर्ष वधु पक्ष के यहाॅ ही रखा जाता है। तथा बडी होने पर वर ससुराल आकार वधु ले जाता है। इसे गौना कहते है।
शोकाकुल या दुखद अवसरों के रीति रिवाज
मनुष्य के जीवन में खुष्ी एंव गम दोनों के लिए अलग अलग रीति रिवाज होते है। तथा मनुष्य द्वारा उनका निर्वाहन आवष्यक रूप से किया जाता है। ष्षोक या गमी होने पर मृतक की आत्म-षान्ति हेतु निम्न रस्मों का निर्वाहन किया जाता है।
बैकुण्डीः-व्यक्ति की मृत्यू होने पर बाॅस की बनी काॅठी (मृत्यु शैया)
सांतरवाडा:-मृतक का अंतिम संस्कार होने तक घर व पडौस में चूल्हा नहीं जलाया जाता है। अंत्योष्टि क्रिया सम्पन्न होने के उपरांत अंत्योष्टि में शामिल व्यक्ति स्नान करें कपडा बदलकर मृतक के घर ढाॅढस बंधाने जाते है। यह प्रक्रिया सांतरवाडा कहलाती है।
मौसर (मृत्यु शेज “कार्ज “ नुक्ता “ बारहवाॅ)ः-मृतक के बारह या तेरह दिन होने पर शोकाकुल परिवार द्वारा मृत्यु -भोज का आयोजन किया जाता है। जिसमे ब्राह्मणों का भोजन कराया जाता है।
पगडी रस्म:- मौसर के दिन मृतक के ज्येष्ट पुत्र को निकटतम सम्बन्धियों द्वारा पगडी बाॅध कर मृतक का उŸाराधिकारी चुना जाता है।
जिन व्यक्तियों के पिछे कोई नहीं होता है। वे अपने जीते जी अपना मौसर खुद कर जाते है। इसे जौसर कहते हैं
श्राद्धः- आष्विन माह की जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु होती है। श्राद्ध उसी दिन मनाया जाता है।
अन्य रीति रिवाज तथा कुरीतियाॅ
डावरिया:- राजपूतना में राजा महाराजा एंव जागीदार बपनी कन्याओं के विवाह के अवसर पर दुल्हन के देहज के साथ कॅुवारी कन्या भी भेजते थे। ये कुवारी कन्याएॅ डावारिया कहलाती हैं ।
नाता प्रथाः- इस प्रथा के अंतर्गत पत्नी पति से परस्पर सहमति के आधार पर अपने पति को छोडकर किसी अन्य पुरूष के साथ घर बसा सकती है।
राजस्थान आभूषण:-
* पुरूषों के आभूषणों में हाथों में बाजूबंद “कानों में मुरकिया “लोंग “गलें में बलेवडा “हाथ में कडा “ऊंगलियों में अंगूठी “लोंग “झालें “देलकडी आदि प्रमुख आभूषण है।
* राजस्थान में जयपुर “पन्नें की अंतराष्ट्रीय मण्डी के रूप में प्रसिध्द है।
* स्त्रियाॅ सुहाग के चिन्ह के रूप में बोर नामक आभुषण पहनती है। जो सिर पर धारण किया जाता है।
* स्त्रियाॅ सुहाग की दीर्घायू व खुषहाली के लिए लाख एंव हाथी दांत के बनें चूडें पहनती है।
* पुरूष कानों में बारी के समान जेवर जिसे मुरकिया कहते है। पहनतें है।
* स्त्रियाॅ गले में हार “बाजुओं पर बाजूबन्द “कलाई पर सोने व हीरे की चूडियाॅ“सोने व चाॅदी के कडें “पायल “कमरबन्द आदि आभूषण धारित करती है।
* स्त्रियाॅ गोखरू नातक आभूषण पहनती है।
* कलाई में गोखरू के पास एक आभूषण पहना जाता है। जिसे पुन्छि कहते है।
* महिलाएॅ गले में कीमती नंगों सें जडा एक विषिष्ट आभूषण पहनती है। जिसे तिमडिया कहते है।
* राजस्थानी महिलाएॅ सावन एंव तीज के अवसर पर लहरिया नामक वस्त्र पहनती है।
* चुनरी भांत की ओंढनी पर पषु “पक्षी “फल “तथा अन्य अलंकारिक अभिप्राय बनते है। जिसका पतला गोटा जमीन में तथा चैडा गोटा जिसे “ लम्पा “ कहते है। आंचल में लगाया जाता है।
* आदिवासी महिलाओं का चाॅदी का हाल हालरों कहलाता है।
राजस्थान में धर्म एंव सम्प्रदाय
राजस्थान में धर्म
हिन्दू धर्म:-
* राज्य की कुल जंनसंख्या का लगभग 89 प्रतिषत हिन्दू धर्म अनुयायियों का है।
* मेवाड के संस्थापक बप्पा रावल एकंिलंग महादेव में आस्था रखते थे तथा उन्होनें एकलिंग जी का मन्दिर बनवाया था।
* महाराणा कुम्भा नें एकलिंग जी के मंदिर का पुनर्रूद्धार कराया ।
* मेवाड के शासक स्वयं को एकलिंग जी महादेव का दीवान कहते थे ।
* हिन्दु धर्म में वैष्णव “ शैव “षाक्त धर्म को समान रूप से मान्यता प्राप्त है।
* राजस्थान में मेंवाड के राजवंष द्वारा सुर्य पूजा की जाने के कारण यहाॅ सुर्य पुजा का प्रचलन श्ी रहा है।
* राजस्थान में वैष्णव धर्म का उल्लेख घोसुण्डी अभिलेख में मिलता है।
जैन धर्म:-
* राजस्थान में प्राचीन काल सें ही जैन धर्म का बहुत अस्तित्व था तथा राजस्थान का वैष्य वर्ग इस धर्म के अत्यधिक नजदीक रहा ।
* राजस्थान में जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों दिगम्बर व श्वेताम्बर का प्रचलन रहा ।
* जैन धर्म में 24 तीर्थकर हुए जिनमें ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर तथा महावीर स्वामी 24 वें तीर्थकर हुए ।
* राजस्थान में जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा से लगभग 14 उप शाखाओं का विकास हुआ जिनमें स्थानकवासी तथा तेरहपंथी प्रमुख है।
* जैन धर्म की तेरहपंथी शाखा के प्रवर्तक भीखमजी ओंसवाल थे।
इस्लाम धर्म:-
* राजस्थान में हिन्दूमती जनसंख्या के बाद दूसरा स्थान इस्लाम धर्म की जनसंख्या का है।
* इस्लाम धर्म के प्रवर्तक पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब थे तथा यह धर्म षिया और सुन्नी दो सम्प्रदाय में विभक्त था।
* राजस्थान में इस्लाम सभ्यता का आगमन पृथ्वीराज चैहन की मुहम्मद गौरी द्वारा पराजय के साथ आरम्भ हुआ।
* राजस्थान में इस्लाम धर्म का प्रमुख केन्द्र अजमेर है। जहाॅ ख्वाजा मुइनूðीन चिष्ती की दरगाह है।
* राजस्थान में हिन्दुओं द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने पर मुस्लिमों की संख्या में अभूतपुर्व वृध्दि हुर्ह जिनमें कायम खानी एंव मेव प्रमुख है।
ईसाई धर्म:-
* राजस्थान में ईसाइयों की सर्वाधिक संख्या अजमेर जिलें में है। इसके साथ साथ बडे शहरों में इनकी संख्या मिलती है।
बौध्द धर्म:-
* राजस्थान में बौध्द धर्म के अनुयायियों की संख्या बहुत कम है।
* बौध्द धर्म के प्रवर्तक महात्मा गौतम बुध्द थे।
* राजस्थान के जयपुर एंव मेवाड क्षेत्र में बौध्द धर्मावलम्बियों की अधिकांष संख्या मिलती है।
* राजस्थान में बौध्द धर्म के प्रमाण बैराठ (जयपुर) सें प्राप्त होने वाले बौध्द चेतालयों के ध्वंसाव शेष है।
सिक्ख धर्म:-
* सिक्ख धर्म के अनुयायी राजस्थान में लगभग सभी बडें शहरों एंव कस्बों में मिलते हैं।
* सिक्ख धर्म के प्रवर्तक गुरू नानक देव थे तथा सिक्ख धर्म को खालसा पंथ मे परिवर्तित करने वाले सिक्ख धर्म के दसवें तथा अंतिम गुरू गोविन्द सिंह थें।
* सिक्ख धर्म के अनुयायी गुरूग्रन्थ साहिब की पूजा करते है।
* राजस्थान में सिक्ख णर्मावलम्बी राज्य के गंगानगर और बीकानेर में अधिक पाये जाते है।
पारसी धर्म:-
* पारसी धर्म के प्रवर्तक जरथ्रुस्ट थे।
* पारसी धर्मावलम्बी सूर्य की पूजा करते थें।
* राजस्थान के अजमेर “उदयपुर और बाडमेर में पारसी अनुयायी मिलते है।
सम्प्रदाय
विष्नोई सम्प्रदाय:-
* विष्नोई सम्प्रदाय के प्रवर्तक नागौर के पीपासर गाॅव में जन्में राजपुत जाम्भोजी थें।
* जाम्भोंजी दारा अपने अनुयायियों को दिए गये 29 उपदेष व 120 शब्दों का संग्रह जम्ब -सागर नामक ग्रंथ में संग्रहित है।
* जम्ब -सागर विष्नोई सम्प्रदाय का प्रमुख धार्मिक ग्रन्थ है।
* इस सम्प्रदाय के अनुयायी इस मत के 29 उपदेषों 20$9 को मानने के कारण विष्नोई कहलाते है।
* जाम्भोजी ईष्वर की सर्वव्यापकता तथा कार्यफल के सिध्दान्त में विष्वास करते थे।
* जाम्भोजी का ग्रंथ जम्भोवाणी राजस्थानी भाषा में लिखा है।
* ऊत्तरकाल में विष्नोई के अनुयायियों द्वारा सम्प्रदाय वृक्षों की रक्षा हेतु प्राणों की आहूति देने के कारण विष्नोईसम्प्रदाय और अधिक विख्यात हुआ।
* विष्नोई सम्प्रदाय का प्रमुख स्थान बीकानेर के पास मुकाम (तालवा) है।
* मुकाम विष्नोई सम्प्रदाय का तीर्थ स्थान है। तथा यहाॅ प्रतिवर्ष फाल्गुनी अमावस्या को विष्नोई सम्प्रदाय का मेला लगता है।
दादू पंथी सम्प्रदाय:-
* दादू पंथ के प्रवर्तक दादूदयाल थें जिन्होंनें 1554 ई में इस पंथ को संस्थापित किया ।
* दादू दयाल अहमदाबाद के ब्राह्मण परिवार से थें।
* दादू पंथ की मुख्य गद्दी नरैना (दूदू)के पास )स्थित है।
* दादू पंथ नागा और विहंग दो शाखाओं में विभक्त है।
* दादू जी द्वारा दिए गये अपदेषो का संग्रह दादू जी वाणी व दादूजी दोहा में संग्रहित है।
* दादू जी ने अपने अपदेषों में ढुॅढाणी भाषा का अत्यधिक प्रयोग किया ।
* दादूजी निर्गुण भक्ति के उपासक थे। तथा अंहकार का त्याग “संत -संगत “नियम सयम आदि को ईष्वर प्राप्ति की सींढी मानतें है।
* दादू के उपदेषों कोक मानने वाले दादूपंथी कहलाते हैं ।
* दादू सम्प्रदाय में मृतक के अंतिम संस्कार विषेष प्रंकार से होता है। जिसमे मृतक के शव को जलाने या दफनाने की बजाय जंगल में छोड आते है। जहाॅ जंगल पषु -पक्षी उसको खाकर नष्ट का देते है।
* दादू जी के उपदेष 5000 छन्दों में दादू वाणी में संग्रहित है।
* दादू पंथ की प्रमुख शाखाए खालसा “नागा “उत्तरादे “विरक्ता और खाकी है।
* बखनाजी “रज्जबजी “दासजी “माधोदास जी “सुन्दर दास जी दादू जी के प्रमुख संत थे।
निम्बार्क सम्प्रदाय:-
* यह वैष्णव सम्प्रदाय की एक प्रमुख शाखा है।
* निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य निम्बार्क थें।
* निम्बार्क सम्प्रदाय की पीठ किषनगढ के पास सलेमाबाद (अजमेर )में स्थित है।
* निम्बार्क सम्प्रदाय को सनकादिक सम्प्रदाय के नाम से श्ी जाना जाता है।
* निम्बार्क सम्प्रदाय राधा -कृष्ण को अपना आराध्य देव मानकर उनकी युगल रूप में पुजा करते थें।
* राजस्थान में निम्बार्क सम्प्रदाय की मुख्य पीठ सालमपुरा(किषनगढ“जिला अजमेर) के अलावा उदयपुर व जयपुर में पीठ स्थित है।
रामस्नेही सम्प्रदाय:-
* रामस्नेही सम्प्रदाय की स्थापना रामचरण जी ने की थी।
* रामस्नेही सम्प्रदाय की मुख्य पीठ(बाॅसवाडा में स्थित ) है।
* रामस्नेही सम्प्रदाय की अन्य पीठ शाहपुरा (भीलवाडा) सिंहथल गांव (बीकानेर) तथा रेण में है।
* रेण रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक दरियावजी थे।
* सीतल रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक हरिरामदास जी थे।
* खेडपा रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामदासजी थे।
* रामस्नेही सम्प्रदाय के अनुयायी निर्गुण निराकार ब्रहाा की उपासना करते थे।
* रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रार्थना स्थल रामद्वारा कहलाते थे।
* सम्प्रदाय में गुरू की स्तुति की जाती थी तथा गुरूवाणी को प्रेम से सुनते थें।
रामानुज (रामानन्दी)सम्प्रदाय:-
* रामानुज सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामानुज थे।
* रामानुज सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ जयपुर के गलता नामक स्थान पर स्थित है।
* इस सम्प्रदाय के अनुयायी राम की भक्ति “कृष्ण की भक्ति के समान सीता एंव राम की श्रृंगारिक जोडी के रूप में पुजा करते है।
* जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह ने इस शाखा को आश्रय प्रदान किया ।
* सवाई जयसिंह के राजकवि श्री श्ट्ट कलानिधि ने रामरासा लिखी ।
* यह सम्प्रदाय विषिष्ठ दैतावाद सिध्दान्त तथा निर्गुण श्क्ति पर आधारित था।
जसनाथी सम्प्रदायी:-
* जसनाथी सम्प्रदाय के प्रवर्तक जसनाथ जी थे।
* जसनाथ जी का जन्म 1539 ई में तात्कालिक बीकानेर राज्य के कतरिया गाॅव में हुआ था।
* जसनाथी सम्प्रदाय गुरू के मार्ग दर्षन एंव निराकार ईष्वर की उपासना पर बल देता है।
* जसनाथ जी द्वारा अपने अनुयायियों को दिए उपदेषों का संग्रह सिभुधाडा तथा कोडों ग्रन्थों में संग्रहित है।
* जसनाथी ज्ञान मार्गी सिध्द सम्प्रदाय है जिसमे 36 नियमों की आचार संहिता है।
* उस सम्प्रदाय के लोग विरक्त जीवन जीतें है। तथा गले में काली ऊन का पट्टा बाधते है। और श्ूगर्भ में समाधि लेते है।
* जसनाथी सम्प्रदाय को राजस्थान का जाट वर्ग अधिक मान्यता देता है।
* जसनाथी सम्प्रदाय की रात्रि जागरण “अग्नि नृत्य “निर्गुणी पद गाना आदि प्रमुख विषेषताएॅ है।
राधा वल्लभ सम्प्रदाय:-
* इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक बल्लभाचार्य थे।
* बल्लभ सम्प्रदाय का भक्ति मंत्र श्री कृष्ण शरणा गमः है।
* बल्लभ सम्प्रदाय की राजस्थान में दो प्रमुख गद्धियाॅ एक नाथद्वारा तथा दूसरी कोटा में स्थित है।
* बल्लभ सम्प्रदाय के लोग भक्ति -मार्गी है। तथा कृष्ण की बाल रूप में सेवा करते है।
* बल्लभ सम्प्रदाय की कोटा पीठ मथुरेष जी की कोटा में तथा दुसरी विटटल नाथ जी की नाथद्वारा में तथा तीसरी द्वारकाधीष जी की कांकरोली में तथा चैथी गोकुल नाथ जी की गोकुल में स्थित है।
* जब मुगल बादषाह ने अपनी धर्मान्धता के कारण मंदिर व देवालयों को तुडवाया था तब गोस्वामी दामोदर जी व उनके चाचा गोविन्द ने श्री नाथ जी को गिरिराज (गोवर्धन)से लाकर सीहाड गाॅव में पदस्थापित कराया । यही सीहाड गाॅव कालान्तर में श्री नाथद्वारा कहलाया जहाॅ इस सम्प्रदाय की प्रधान गद्दी है।
नाथ सम्प्रदाय:-
* यह सम्प्रदाय वैष्णव सम्प्रदाय का ही एक षाखा है।
* नाथ सम्प्रदाय की स्थापना नाथमुनि ने की थी।
* प्रारम्भ में सह सम्प्रदाय जोधपुर में प्रचलित था तथा इसकी गद्दी जोधपुर के महामंदिर में स्थित है।
* गोरख नाथ ने हठ योग नाम से एक नवीन योग प्रणाली को विकसित किया।
* मारवाड के महाराजा मानसिंह के समय नाथ सम्प्रदाय का प्रचार प्रसार शीर्ष स्तर पर हुआ।
* महाराजा मानसिंह के राजपत्रों पर जालंधर नाथ साय छै लिखा होता था।
गौडीय सम्प्रदाय:-
* गौडीय सम्प्रदाय के प्रवर्तक गौंरांग महाप्रभु चैतन्य थे।
* गौंडीय समप्रदाय को अचिन्त्य भेदाभेदवाद दार्षनिक नाम से भी जाना जाता है।
* आमेर के शासक मानसिंह प्रथम ने गौंडीय सम्प्रदाय के प्रचार एंव प्रसार में अभूतपूर्व योगदान किया।
* मानसिंह ने वृन्दावन में गोविन्द देव जी का मंदिर बनवाया ।
परनामी सम्प्रदाय:-
* परनामी सम्प्रदाय के प्रवर्तक प्राणनाथ थे।
* परनामी सम्प्रदाय कृष्ण भक्ति में आस्था रखता था तथा निर्गुण विचारधारा में विष्वास करता था।
* परनामी सम्प्रदाय की मूल गद्दी मध्य प्रदेष के पन्ना में स्थित है।
* राजस्थान के जयपुर में इस सम्प्रदाय के व्यक्तियों का अधिवास है।
* परनामी पमप्रदाय के मूल उपदेषों का संग्रह कुलजम संग्रह नामक ग्रन्थ में संग्रहित है।
कबीर पंथी सम्प्रदाय:-
* कबीर पंथी सम्प्रदाय के प्रवर्तक कबीर थे जो निराकार ईष्वर श्क्ति के समर्थक थे।
* इस सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ कबीर वाणी है। जिसमें कबीर जी के दोहे और उपदेष संग्रहित है।
लालदासी सम्प्रदाय:-
* इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक लाल दास जी मेव थे।
* लालदास जी का जन्म धौली धूप गाॅव (अलवर)में हुआ था।
* इस समप्रदाय की प्रमुख गद्दी भरतपुर के पीठ नगला में स्थित है।
* लालदास जी के उपदेष लाल दास की चेतावाणियाॅ में संग्रहित है।
* लाल दास जी का देहान्त पीठ का नगला (भरतपुर)में हुआ।
* लाल दास सम्प्रदाय हिन्दु-मुस्लिम एकता “आपसी शईचारे “नैतिक मूल्यों का विकास “रूढियों का विरोध “दुराचार रहित आचार संहिता पा जोर देता है।
* उपयुक्त लोक देवताओं के अतिरिक्त राजस्थान के लोक देवताओं में हरीराम बाबा “पनराज जी “वीरफता जी“भूरिया बाबा (गौतमेष्वर)हडबूजी सांखला आदि लोक देवताओं की मान्यता है।
लोक देवियाॅः-
* कैला देवी की दुर्गा रूप में पुजा की जाती है।
* कैलादेवी को करौली के यदुवंषी राजवंष की कुल देवी के रूप में मान्यता प्राप्त है।
* योगमाता (कैलादेवी)भूमण्डल पर अवतरित होकर करौली के त्रिकूट पर्वत पर विराजमान है।
* प्रतिवर्ष चैत्रमास की शुक्ल अष्टमी को करौली में कैलादेवी का लक्खी मेला श्रता है। जिसमें देष के विभिन्न हिस्सों से श्रध्दालु माता के दर्षन हेतू आते है।
* करौली में कैलादेवी के मंदिर के सामने बोहरा की छŸारी पुजारी झाड फूंस द्वारा पैतृक बीमारी को ठीक करता है।
* बृज क्षेत्र भरतपुर धौलपुर“मथुरा“अलवर क्षेत्रों में कैला देवी की विषेष पूजा अर्चना की जाती है।
करणी माता:-
* करणी माता बीकानेर के राठौड शासकों की कुलदेवी के रूप मेंू पूजी जाती है।
* करणी माता को शक्ति एंव जगमाता के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है।
* बीकानेर से 35 किलोमीटर दूर देषनोक नामक स्थान पर करणीमाता का मंदिर स्थित है।
* करणीमाता देषनोक में स्थित मंदिर की मुख्य विषेषता मंदिर में काफी संख्या में चूहों का पाया जाना है।
* देषनोक करणी माता के मंदिर में उपस्थित सफेद चूहे काबा कहलाते है।
* देषनोक का स्थानीय चारण समाज चूहों को अपना पूर्वज मानता है।
* देषनोक करणीमाता के मंदिर में चूहों की संख्या की अधिकता के कारण करणीमाता चूहों की देवी के रूप में विख्यात है। करणीमाता के मंदिर में प्रत्येक वर्ष नवरात्रि में 2 बार मेला श्रता है।
नारायणी माता:-
* राज्य के अलवर जिले की बरवां डूॅगरी तलहटी (तहसील राजगढ के सरिस्का क्षेत्र)में नारायणी(नाराणी)माता का मंदिर स्थित है।
* नारायणी मंदिर 11 वीं शताब्दी की प्रतिहार स्थापत्य शैली में निर्मित है।
* नारायणी माता को नाई जाति के लोग अपनी कुल देवी के रूप में पुजते है।
* नाई एंव मीणा जाति के वर्गो के मध्य नारायणी माता का पुजारी होने का विवाद चल रहा है।
* नारायणी माता का मंदिर सभी सम्प्रदायों की आस्था का केन्द्र है।
शीतला माता:-
* शीतला माता की पूजा खण्डित रूप में की जाती है।
* बच्चों के चेचक निकलते वक्त शीतलामाता की स्तुति की जाती है। जिससे बच्चों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पडता है।
* सवाई माधोसिंह ने (जयपुर)में चाकसू में शील की डुंगरी पर षीतलामाता के मंदिर का निर्माण कराया ।
* शीतला माता का वाहन गधा एंव कुम्हार पुजारी होता है।
* चाकसू में शील की डुॅगरी पर शीतलाष्टमी के दिन प्रत्येक वर्ष गधों का मेला श्रता है।
षिला देवी:-
* षिलादेवी का सफेद संगमरमर से निर्मित श्व्य मंदिर आमेर में स्थित है।
* आमेर के शासक मानसिंह प्रथम ने अपनी पूर्वी बंगाल की विजय के उपलक्ष्य में आमेर के राजभवनों में षिला देवी की मूर्ति को स्थापित कराया ।
* षिलादेवी की मूर्ति अष्टभुजी भगवती महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति के समान है। जिसके ऊपर भाग पर पाॅच देवी प्रतिमाएॅ उत्कीर्ण है।
* भक्तो को षिलादेवी मंदिर में माता का चरणामृत मदिरा या जल के रूप में उनकी इच्छा के अनुसार दिया जाता है।
* आमेर राज परिवार के लोग षिलादेवी को अपनी कुल देवी के रूप में पुजते है।
राणी सती माता:-
* राणी सती का मुल नाम नारायणी बाई था जिनका विवाह तनधन दास से हुआ था।
* लोक भाषा मेुं राणी सती दादीजी के नाम से प्रसिध्द है।
* राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र के झुंझुनूं जिला मुख्यालय पर राणी सती का प्रसिध्द मंदिर है।
* झुंझुन्नू जिला मुख्यालय पर प्रतिवर्ष शद्रपद माह कृष्ण पक्ष की अमावस्या को राणी सती मेला (लक्खी मेला)भरता है।
* शरत सरकार द्वारा सती प्रथा निवारण मार्च 1988 में प्रारित किए जाने के पष्चात प्रषासन द्वारा सती के मेले पर रोक लगा दी गई ।
जीण माता:-
* सीकर जिले में रेवासा ग्राम से दक्षिण की तरफ गिरिमाला की उपत्यका में जीणमाता का मंदिर स्थित है।
* म्ंदिर में जीणमाता की अष्टभुजी प्रतिमा स्थापित है।
* हर्ष पर्वत ष्लिालेख से जीणमाता चैहानों की कुल देवी होने की जानकारी मिलती है।
* प्रतिवर्ष चैत्र और अष्विनी माह के नवरात्रों में जीणमाता का मेला श्रता है।
* राजस्थान के लोक अंचलों के अलावा पडौसी राज्यों से भक्तजन यहाॅ विवाह की जात देने “बच्चों के झडूले(मुंडन)तथा मनोकामना पूर्ति हेतु आते है।
सकराय माताः-
* शाकम्भरी या सकराय माता की आस्था का प्रमुख केन्द्र उदयपुर वाटी (झुंझुनू)केू नजदीक स्थित है।
* एक मान्यता के अनुसार कहा जाता है।कि एक बार अकाल पीडितों को श्ूखमरी से बचाने के लिए इस देवी ने फल एंव कंदमूल उत्पादित किए थे। तभी से सह देवी शाकम्भरी माता कहलाती है।
* सकराय माता (षाकम्भरी) को खण्डेलवालों की कुल देवी के रूप में जाना जाता है।
* राजस्थान के सांभर तथा उ प्र के सहारनपुर में शाकम्भरी माता का मंदिर स्थित है।
* चैत्र और आष्विन माह में नवरात्रि पूजा के समय शाकम्भरी के मंदिर में माता का मेला श्रता है।
सचिया माता (ओसियाॅ)ः-
* ओसियाॅ नामक नगर में एक ऊॅची पहाडी पर सचिया माता का मंदिर स्थित है।
* परमार राजकुमार उपलदेव ने सचिया माता (अपनी कुल देवी )का मंदिर बनवाया था।
* सचिया माता को महिषासुर मर्दिनी का ही सात्विक रूप माना जाता है।
* ओसवालों द्वारा सचिया माता को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजा जाता है।
आई माता:-
* आई जी के मंदिर को दरगाह कहते है।
* आई माता नव दुर्गा का अवतार मानी जाती है।
* आई माता को सिखी जाति के क्षत्रिय वर्ग की कुल देवी माना जाता है।
* माना जाता है। कि आई माता के मंदिर की ज्योति से केसर टपकती है।
* आई जी के थान बडेर “जिसमे कोई मूर्ति नहीं होती “पर हर महीने की शुक्ला द्वितीय को इनकी पूजा ोिती है।
इन सभी के अतिरिक्त राजस्थान के विभिन्न अंचलों में पायी जाने वाली लोकदेवियाॅ इस प्रकार है।:-
* (चैथ का बरवाडा)“महामाई माता (रेनवाल)“जोगमाता(पोलजी की डोरी)“हिंगलाज माता(लोद्रवा)“मालण माता (जानरा)“भेडमात (डोजा)“भद्रकाली(हनुमानगढ)
राजस्थान के लोक सन्त
संत जाम्भों जी:-
* जाम्भों जी का जन्म 1415 ईं में जन्माष्टमी के दिन नागौर जिले के पीपासर ग्रावॅ में हुआ ।
* जाम्भों जी ने समाजोत्थान हंतु 29 उपदेष तथा 120 शब्द प्रतिपादित किए जो कि “जम्ब सागर“नामक ग्रंथ में संग्रहित है।
* जाम्भो जी के अनुयायी विष्नाई कहलाते है।
* जाम्भों जी ने पषुवध रोकने वृक्ष ने काटने तथा वृक्षारोपण पर बल दिया।
* जाम्भो जी ने विधवा पुनर्विवाह पर बल दिया जिससे विधवा महिलाओं को समाज में यथा समान मिल सके।
* जाम्भे जी ने जम्भ संहिता “जम्भ सागर शब्द वाणी और धर्म प्रकाष आदि धर्म ग्रंथों की रचना की थी।
* जाम्भोजी ने संभराथल(बीकानेर )में विष्नोई सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया तथा 1526 ई में त्रयोदषी के दिन मुकाम नामक स्थान पर समाधि ली।
* पीपासर (नागौर)“मुक्ति धाम मुकाम (नोखा)“लालासर (बीकानेर)जाम्भा (फलौदी)“जांगलू (बीकानेर)“रामडावास(जोधपुर)“आदि स्थानों पर जाम्भों जी से सम्बन्धित छः देवालय स्थित है।
संत पीपा जी:-
* संत पीपा जी का जन्म गागरोन के खींची चैहान राजा डोवा राव की पत्नी लक्ष्मीवती के गर्भ से 1425 ई में चैत्र पूर्णिमा को हुआ था।
* इनके बचपन का नाम प्रताप सिंह था।
* उन्होनें 25 साल की उम्र में गागरोन के गढ का प्रबंध सभांलते ही दिल्ली के सुल्तान फिरोज तुगलक के आक्रमण को विफल करते हुए उसे पराजित किया।
* संत पीपा ने राजकार्य अपने भतीजे को सौंप कर संत रामानन्द को अपना गुरू बनाया ।
* संत पीपा भक्ति की निर्गुण विचारधारा के अनुयायी थे।
* बाडमेर जिले के सामदडी ग्राम में संत पीपा का मंदिर स्थित है।
* बाडमेर के सामदडी में प्रधान मेला श्रता है। इसके अलसवा जोधपुर के मसूरिया तथा गढ गागरोन में भी संत पीपा का मेला श्रता है।
संत जसनाथ का जन्म:-
* संत जसनाथ जी का जन्म 1482 ई (वि संवत 1539)को बीकानेर के कतरियासर स्थान पर कार्तिक शुक्ला एकादषी को हुआ था।
* संत जसनाथ जी की षिक्षा दिक्षा गोरखनाथ के आश्रम में हुई तथा उन्होने आजन्म ब्रह्यचारी रहकर गोरखनाथ के उपदेषों का प्रचार प्रसार किया ।
* जसनाथ जी ने योगसाधना पर बल दिया तथा ज्ञान मार्गी जसनाथी सिध्द सम्प्रदाय को प्रतिपादिम किया ।
* जसनाथ जी ने जसनाथी सम्प्रदाय के उत्थान के लिए 36 नियमों की आचार संहिता बनायी ।
* जसनाथ सम्प्रदाय को मानने वाले अनुयायी जसनाथी कहलाते है।
* संत जसनााि नें 24 वर्ष की उम्र में 1506 ई को आष्विन शुक्ल सप्तमी के दिन कातिरियावास में जीवित समाधि ले ली तथा ब्रÐ में लीन हो गये।
* संत जसनाथ जी ने गुरू के मार्गदर्षन और नाम स्मरण व्यक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्त हेतु अनिवार्य माना ।
संत दादूदयाल जी:-
* संत दादूदयाल जी का जन्म गुजरात के अहमदाबाद नामक स्थान पर वि संवत 1544 ई में हुआ था।
* संत दादूदयाल के विचारों एंव उपदेषों को मानने वाले लोग दादूपंथी तथा उन लोगों के सम्प्रदाय को दादूपंथी सम्प्रदाय कहतें है।
* दादू दयाल के गुरू का नाम वृध्दानन्द था।
* नरैना में 1605 ई में दादू जी को महाप्रयाप्त प्राप्त हुआ।
* दादू पंथियों की प्रधान गद्दी नरैना में स्थित है जहाॅ दादू जी के स्मृति चिन्ह कपडें तथा पोथियां सुरक्षित रखी है।
* दादू जी द्वारा कविता के रूप प्रदत्त विचारों को उनके षिष्यों ने दादू दयाल की वाणी तथा दादूदयाल का दोहा के रूप में संकलित किया।
* दादू पंथ के संत्सग स्थल को अलख दरीबा कहा जाता है।
मीराॅबाई:-
* कृष्ण की अनन्य प्रेम दीवानी श्क्त एंव कवियित्री मीराॅ मेडता के रत्नसिंह के यहाॅ वि संवत 1573 ई को मेडता के बाडोली नामक स्थान पर जन्मी तथा कुकडी (नागौर)में पली थी।
* मीराॅ का विवाह चित्तौड के राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र शेजराज से हुआ। लेकिन मात्र सात वर्ष के बाद विधवा हो गई ।
* मीराॅ ने कृष्ण की उपासना “माधुर्व शव“ से की तथा कृष्ण को अपने प्रणयन-प्रियतम या पति के रूप में पूजती थी।
* टीका राग रूक्मणी मंगल “नरसी मेहतानी हुडी आदि उनकी प्रमुख रचनाए है।
* मीराबाई के निर्देषन में रतन खाती ने नरसी रो माहिरों की रचना की थी।
संत रामचरण दास:-
* संत रामचरण दास जी का जन्म 1718 ई में जयपुर के सोडा ग्राम में हुआ था।
* संत रामचरण दास ने रामस्नेही मत की स्थापना की थी।
* रामचरण जी ने गुरूभक्ति पर बल दिया तथा बृज शषा में रचित श्क्ति गीतों के संग्रह “अनाभाई वेबी “की रचना की ।
* उनके अनुसार कोई श्ी राम स्नेही गुरू -दीक्षा प्राप्त किए बिना श्वसागर से मुक्त नहीं हो सकता ।
* संत धन्नाजी:-
* धन्नाजी का जन्म 1415 ई में धुवन गांव “टोंक जिले में हुआ था।
* स्ंत धन्ना जी गरू रामानन्द के परम षिष्य थे।
* धन्ना जी ने समाज में व्याप्त जात-पाॅत“ऊंच -नीच शवना का विरोध किया तथा मार्ग दर्षन हेतू गुरू के महत्व पर बल दिया।
स्ंात रैदास:-
* संत रैदास निर्गुण ईष्वर की श्क्ति में विष्वास करते थे।
* रैदास जाति से मोची “तथा संत कबीर के समकालीन थे।
* रैदास की रचनाओं को रैदास की पाची कहाॅ जाता है।
हरिदास निरंजनी:-
* संत हरिदास निरंजनी का जन्म 1455 ई में कापडोद (नागौर)में हुआ था।
* ये आरम्भ में डकैत थे तथा इनका मुल नाम हरिसिंह था।
* एक महात्मा कंे सदुपदेष से ये आत्मचिंतन में लीन हो गए तथा निरंजनी सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव किया।
स्ंात लाल दास:-
* स्ंात लालदास जी का जन्म 1540 ई में मेवात प्रदेष के धोलीदूव गांव में हुआ था।
* अलवर“षेरपुर और नगला आदि लालदास जी से सम्बन्धित प्रमुख स्थान है।
* लालदास जी ने नैतिक शुध्दता पर बल दिया तथा समाज में व्याप्त कुप्रथाओं मिथ्या विचारों का विरोध किया।
संत दरियाब जी:-
* संत दरियाब रेण (जोधपुर राज्य में मेडता से 16 किलोमीटर दूर )के रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक थे।
* इनका जन्म जोधपुर राज्य के जैतारण नामक कस्बे में 1676 मई में हुआ था।
संत हरिराम दास:-
* हरिराम दास जी सिंहथल रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक थे।
राजस्थान के नृत्य एंव लोक नृत्य
नृत्य:-षास्त्रीय नृत्य परम्परा की कत्थक नृत्य शैली का विकास राजस्थान से माना जाता है।
* राजस्थान का जयपुर घराना कत्थक नृत्य शैली का सबसे आदिम घराना माना जाता है।
* वर्तमान में कत्थक की जयपुर शैली तथा लखनऊ शैली प्रमुख शैली है।
* राजस्थान में शास्त्रीय नृत्य की कत्थक शैली के जयपुर घराने के प्रवर्तक शनूजी थे।
* चमत्कार प्रदर्षन करना जयपुर घराने की प्रमुख विषेषता रही है।
लोक नृत्य:-
(प) क्षेत्रीय लोक नृत्य:-
* वे लोकनृत्य जो किसी स्थान के विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुए तथा विकसित होने वाले क्षेत्र की पहचान बन जाते है। वे क्षेत्रीय लोक नृत्य कहलाते है। राजस्थान के प्रमुख क्षेत्रीय नृत्य निम्न है।
गैर नृत्य:-
* यह होली के अवसर गोल घेरे में सामूहिक रूप से किया जाने वाला नृत्य है।
* गैर नृत्य मेवाड एंव बाडमेर क्षेंत्र का प्रमुख लोक नृत्य है।
* गैर नृत्य पुरूष प्रधान नृत्य है जिसमें महिलाए शग नहीं लेती है।
* गैर नृत्य करने वाले गेरिये कहलाते है।
* गैर नृत्य में शग लेने वाले गेरिये हाथ में लकडी की छडी लेकर गोल घेरा बनाते हुए नृत्य करते है।
* यह नृत्य होली के दुसरे दिन से प्रारम्भ होकर प्रन्द्रह दिन तक खुले मैदान में किया जाता है।
* गैर नृत्य में संगीत हेतु ढोल“बांकिया तथा थाली का उपयोग किया जाता है।
गीदड नृत्य:-
* यह होली के अवसर पर सामुहिक रूप से किया जाने वाला नृत्य है।
* गीदड नृत्य राजस्थान केे शेखवाटी क्षेत्र सुजानगढ “चूरू“रामगढ“लक्ष्मणगढ आदि क्षेत्रों में एक सप्ताह तक किया जाता है।
* यह विषुध्द रूप से केवल पुरूषों का नृत्य है। जिसमें महिलाए शग नहीं लेती है मगर कुछ पुरूष महिलाए के वस्त्र धारण करके नृत्य में शग लेते है।
* होली के अवसर पर डण्डा रोपन के साथ यह नृत्य आरम्भ होता है। तथा करीब सप्ताह तक चलता है।
* नृत्य में संगत हेतू ढोल “उफ “चंग आदि वाद्य यन्त्रों का उपयोग होता है।
* पुरूष हाथो में दो छोटे डण्डे लिए होते है। जिन्हें नृत्य करते समय नगाडें की चोट पर परस्पर चकराकर नृत्य आरम्भ होता है।
* नृत्य में महिला वस्त्र धारण कर शग लेने वाले पुरूष गणगौर कहलाते है।
चंग नृत्य:-
* राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में होली के अवसर पर पुरूष प्रधान नृत्य है।
* इस नृत्य में पुरूष हाथों में चंग लेकर उसे बजाते हुए वृताकार रूप में नृत्य करते है। चंग एक प्रकार का ढपलीनुमा बडा वाद्य यंत्र होता है। जिसमें एक तरफ खाल की बनी पर्त कसी होती है। तथा एक तरफ खाली होता है।
* जालौर का ढोल नृत्य राजस्थान के मरूस्थीलीय क्षेत्रों का प्रसिध्द नृत्य है।
* ढोल नृत्य प्रायः शादी के अवसर पर माली “भील “ढोली “सरगणा आदि जातियों द्वारा किया जाता है।
* न्ृत्य में चार -पाॅच ढोल बजाए जातें है।
* ढोल का मुखिया ढोले को “थाकना शैली “में बजाना आरम्भ करता है। थाकना के समाप्त होते ही अन्य नृत्यकारों में कोई मुंह में तलवार लेकर कोई हाथ में डण्डे लेकर कोई भुजा में रूमाल लटकाकर आदि रूप में लयबध्द अंग संचालन द्वारा नृत्य आरम्भ करते है।
अग्नि नृत्य:-
* अग्नि नृत्य जसनाथी सम्प्रदाय के लोगों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।
* अग्नि नृत्य का उदगम बीकानेर के कतरियासर ग्राम में हुआ ।
* अग्नि नृत्य पुरूष प्रधान नृत्य होता है। इसमें महिला शग नहीं लेती है।
* सह नृत्य चुरू“ नागौर “बीकानेर जिलों जसनाथी सिध्दों के रात्रिकालीन जागरणों में किया जाता है।
बम नृत्य (बमरसिया नृत्य)ः-
* यह नृत्य विषुध्द रूप से श्रतपुर क्षेत्र का नृत्य है साथ ही श्रतपुर से लगे अलवर व मेवाती क्षेत्रों में श्ी प्रचलित है।
* इस नृत्य में एक बडें नगाडें (स्थानीय शषा में जिसे बम कहते है। ) का प्रयोंग किया जाता है। जोकि लगभग ढाई तीन फीट ऊॅचा और लगभग दो फीट व्यास का होता है।
* नगाडें (बम) को बजाने के कारण इस नृत्य का नाम बम नृत्य पडा है।
* पुरूष प्रधान यह नृत्य फाल्गुन माह मे नई फसल आने की खुषी एंव मस्ती में किया जाता है।
* नृत्य में बम के बजने के साथ ही साथ रसिया श्ी गाए जाते है। इसी कारनण इस नृत्य को बमरसिया (बम$रसिया) नृत्य कहा जाता है।
डांडियाॅ नृत्य:-
* मारवाड क्षेत्र में प्रचलित इस नृत्य को डांडिया या डांडिया नृत्य के नाम से जाना जाता है।
* होली के अवसर से आरम्भ किया जाने वाला यह नृत्य विषुध्द रूप से पुरूषों का नृत्य है।
* टोली के प्रत्येक व्यक्तियों द्वारा दोनों हाथों में लकडी की छोटी छडी लेकर छडियों को आपस में टकराते हुए वृत्ताकार रूप में नृत्य किया जाता है।
* नृत्य का साथ देने वाले शहनाई वादक “नगाडे वाले तथा गवैये आदि चैक में बैठकर विलम्बित लय लोक-ख्याल गाते है।
* नृत्यकारों का साथ देने के लिए गायक नृन्योपयोगी होली गीत गाते है। जिनमें श्ैरूजी का गुणगान होता है।
घूमर नृत्य:-
* घूमर नृत्य को राजस्थान का प्रतीक “ राजस्थान के नृत्यों का सिरमौर माना जाता है। जो कि राजस्थान के पष्चिमी शग में लोकप्रिय है।
* घूमर नृत्य विषुध्द रूप से महिलाओं द्वारा मांगलिक अवसरों “पर्वो एंव त्यौहारों के अवसर पर किया जाने वाला लोकप्रिय नृत्य है।
* नृत्य में प्रयुक्त लहंगा जो नृत्य करते वक्त वृत्ताकार रूप में फैलता है “प्रेरणा का स्त्रोत है।
* घूमर नृत्य के साथ आठ मात्रा कें कहरवे की विषेष चाल होता है जिसे सवाई कहते है।
गरबा नृत्य:-
* गरबा नृत्य बांसवाडा और डूंगरपुर का लोकप्रिय नृत्य है।
* स्ह नृत्य प्रायः नवरात्रि की स्थापना के साथ आरम्भ होता हैै। तथा नवरात्रि की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाता है।
(2)जन-जातिये लोक नृत्य:-
श्ीलों के लोक नृत्य:-
गैर नृत्य:-
* यह एक होली नृत्य है जो होली के अवसर पर नई फसल काटने के हर्षोउल्लास में मनाया जाता है।
गबरी नृत्य:-
* नृत्य नाटक के रूप में प्रस्तुत यह नृत्य सावन शदों के अवसर पर सारे श्ील प्रदेषों में किया जाता है। श्गवान षिव इस नृत्य नाटक के प्रमुख पात्र होते है। तथा श्गवान षिव की अध्र्दागिनी गौरी (पार्वती ) के नाम पर इस नृत्य का नाम गबरी पडा है।
* गबरी नृत्य में श्गवान षिव को पुरिया नाम से जाना जाता है।
* गबरी नृत्य को राई नृत्य नृत्य के नाम से श्ी जाना जाता है।
नेजा नृत्य:-
* यह होली के अवसर पर आयोजित किया जाने वाला श्ीलों का खेल -नृत्य है जो होली के तीसरे दिन आयोजित किया जाता है।
* इस नृत्य के आरम्भ होने से पूर्व जमीन में एक खम्बा रोपकर उसके ऊपर एक नारियल रख दिया जाता है। तथा इस खम्बे को स्त्रियाॅ अपने हाथ में लकडी की छडी लेकर चारों तरफ घेर लेती है।
* नृत्य के दौरान पुरूष द्वारा खम्बे पर रखे नारियल को लेने का प्रयास किया जाता है। तथा इस दौरान स्त्रियाॅ उन्हें छडी से पीटती है। तथा नारियल को लेने से रोकती है।
गरासियों के लोक नृत्य:-
वालर नृत्य:-
* यह गरासिया जनजाति का प्रसिध्द लोक नृत्य है जिसमें पुरूष एंव महिलाए सम्मिलित रूप से शग लेती है।
* यह नृत्य अरावली एंव विंध्य पर्वतमाला (सिरोही जिला) में गरासिया जनजाति के व्यक्तियों द्वारा किया जाता है।
* वालर नृत्य मन्दगति का नृत्य है। जिसमें किसी श्ी वाद्य यन्त्र का उपयोग नहीं होता है।
* यह नृत्य अध्र्दवृत्त में होंता है। जिसमें दो अध्र्दवृŸा में महिलाएॅ शग लेंती है।
* इस नृत्य का आरम्भ एक पुरूष हाथ में तलवार या छाता लेकर करता है।
* वालर नृत्य में पुरूष -स्त्रियाॅ नृत्य के साथ -साथ गीत गाते है।
* इस नृत्य के अलावा घूमर नृत्य “मादल नृत्य “लूर नृत्य आदि गरासिया समुदाय द्वारा किए जाने वाले नृत्य है।
घुमन्तु जातियों के लोकनृत्य:-
बनजारों का लोक नृत्य:-
* बनजारों जाति एक घुमक्कड प्रवृति की जाति है जो कभी श्ी एक स्थान पर स्थाई निवास नहीं करती है। जो सामान्यतः नाच गाकर अपनी जीविका चलाते है। सारंगी “ढोलकी आदि इनके वाद्य यंत्र होते है।
कंजरों के नृत्य:-
* कंजर एक खानाबदोष जाति होती है।
* स्त्रियाॅ नाचने गाने में माहिर होती है। तथा पुरूष स्त्रियों का नाचने में साथ देने के लिए चंग बजाते है।
* कंजर नृत्य में महिलाए प्रायः पैसे के लिए नाचती है। तथा दर्षको की मांग के अनुसार नृत्य करती है।
नटों का नृत्य:-
* नट एक खेल तमाषा दिखा कर जीवन यापन करने वाली एक खानाबदोष जाति हाती है।
* नटों में लोगों को श्ीड एकत्र कर उन्हें विभिन्न प्रकार के जादू एंव मनोरंजनक खेल दिखाया जाता है। तथा महिला नृत्य करती है।
सांसियों का नृत्य:-
* सांसी एक जयराम पेषा जाति है जिसमें स्त्री -पुरूष दोनों मिलकर एक दूसरे के आमने सामने स्वछंद अंग -भंगिमाएं बनाते हुए नृत्य करते है।
* नृत्य में संगीत के लिए ढोलक और थाली का वाद्य यन्त्रों के रूप में उपयोग होता है।
कालबेलियों (सपेरों) के नृत्य:-
शंकरिया:-
* शेरिया प्रेम कहानी पर आधारित कालबेलिया जाति का एक युगल नृत्य है जिसमें महिलाए एंव पुरूष शग लेते है नृत्य में अंगों का संचालन मोहक होता है ।
पणिहारी:-
* यह नृत्य राजस्थान की पणियारी (पणिहारी)गायन विद्या पर आधारित एक युगल नृत्य है जिसमें पुरूष एंव महिला सम्मिलित रूप से शग लेते है।
इण्डोणी:-
* इण्डोणी (इण्डोणी)वृत्ताकार रूप में किया जाने वाला युगल नृत्य है जिसमे महिला और पुरूष संयुक्त रूप से शग लेते है।
* इस नृत्य में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख यन्त्र पुंगी और खंजरी है।
बागडिया नृत्य:-
* इस नृत्य को कालबेलिया जाति की महिलाए श्ीख मागते समय करती है। इस नृत्य संगीत के लिए चंग वाद्ययंत्र का प्रयोग किया जाता है।
(3) व्यावसायिक लोक नृत्य:-
श्वाई नृत्य:-
* राजस्थान के व्यावसायिक लोक नृत्यों में श्वाई नृत्य प्रमुख स्थान रखता है।
* श्वाई नृत्य और उसके साथ वाद्य वादन में शास्त्रीय नृत्य कला की झलक देखने को मिलती है।
* श्वाई नृत्य की प्रमुख विषेषता नृत्य अदायगी शारीरिक क्रियाओं के लिए अदभुद चमत्कार तथा लय की विविधता है जिसमें ढोलक वादन के साथ भवाई -नृत्यकार की चाल -नृत्य का चमत्कार देखते ही बनता है।
* श्वाई नृत्य की विषेषताओं में तेज लय में विविध रंगों की पगडियों को हवा में फैलाकर नृत्य करते हुए उॅगलियों से कमल का फुल बना लेना सिर पर सात -आठ मटके रख कर नृत्य करना “ मुंह से जमीन पर पडें रूमाल को नृत्य करतें हुए उठान“ गिलासों पर एंव थाली के किनारों पर नृत्य करना “ तलवार की तेजधार और काॅच के टुकडों पर नृत्य करना आदि प्रमुख है।
तेरहताली नृत्य:-
राजस्थान के रामदेवरा में रामदेवजी के श्क्त कामड उनकी आराधना में सर नृत्य को करते है।
नृत्य के अंतर्गत महिलाएं नृत्य करती है। तथा पुरूष तानुपुरा ्््् मंजीरा तथा
चैतारा बजा कर नृत्यांगना को लय देते है।
इस नृत्य में नृत्यांगना के शरीर पर तेरह मंजीरें जिनमें नौ मंजीरे दायें पाँव पर‘ दो मंजीरे दोनों हाथों की कोहनियों के ऊपर ’ तथा एक-एक मंजीरा दोनों हाथों में होता है।
अन्य नृत्य:-
कच्छी घोडी नृत्य:-
यह नृत्य ’ नृत्य संयोजन ’ की विषिष्ट कला के कारण प्रसिध्द है जिसमें नृर्तकोें की चार -चार के समुह में एक दूसरे के सम्मुख मुंह करते हुए दो पंक्तियों होती है। जो तीव्र गति से आग पीछे हटने का क्रमबध्द नृत्य संचालन करते है।
नृत्यों में पंक्तियों का आगे तथा पीछे होना फूल की पंखुडियों के खुलने तथा बन्द होने का आभास कराता है।
चरी नृत्य:-
यह नृत्य मुख्यतया गुर्जर जाति का नृत्य है जो किषनगढ के पास गुर्जर समुदाय में प्रसिध्द है।
नृत्य में नृत्यांगना सिर पर चरी (कलष) रखकर उसमें तेल डालकर कपास का टुकडा डालने के बाद उसे जला दिया जाता है। जिसमें आग की लपटें निकलती है। तथा नृत्य करते हुए हाथ की कलाई को घुमाती है।
नृत्य में बांकिया ढोल और थाल का वाद्ययंत्र के रूप् में प्रयोग होता है।
फलकूबाई (किषनगढ)इस नृत्य की प्रसिध्द नृत्यांगना है।
घुडला नृत्य:-
यह नृत्य मारवाड क्षेत्र में प्रचलित है।
घुडला नृत्य में एक छिद्रित मटकी जिसमें दीपक रखा होता है। को स्त्रियाँ श्रृंगार करने के बाद सिर पर रखकर वृत्ताकार चक्कर बनाती हुई नाचती है।
विषिष्ट तथ्य:-
श्ीलों का एक अन्य प्रमुख नृत्य राई नृत्य है। तथा श्गवान षिव नृत्य के प्रमुख पात्र होते है। जिन्हें कि पुरियाँ कहा जाता है।
इस नृत्य में नृतक श्गवान षिव के त्रिषूल के आस -पास थाली और मांदल की ताल पर नृत्य करते है।
यह नृत्य डूंगरपुर उदयपुर बांसवाडा और प्रतापगढ क्षेत्र के श्ीलों में प्रमुखतः कंजर जनजाति में लोकप्रिय है।
ज्यपुर के मणिगांगुली एंव उदयपुर के देवीलाल सांभर को राजस्थान में लोकनृत्यों को लोकप्रिय बनाने का श्रेय जाता है।
जोधपुर के कमल कोठारी का लोक नृत्यों के पुनःविकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
राजस्थान का लोक संगीत लोक वाद्य एंव लोक नाटय
लोक गीत ही जनता की शषा है। लोक गीत हमारी संस्कृति के पहरेदार है। -महात्मा गांधी
लोक गीत संस्कृति का सुखद संदेष ले जाने वाली कला है। -कवीन्द्र रवीन्द्र
जनसाधारण के गीत:-
जच्चा गीत:-पुत्र जन्मोत्सव जैसे (छठी पूजन) आदि अवसरों पा गाए जाने वाले गीतों को जच्चा (होलर) गीत कहते है।
घुडचढी गीत:-जब वर शादी के लिए जाता है। तो घुडचढी की रस्म की जाती हैै।
जला गीत:-वधु पक्ष की युवतियों द्वारा वर की बारात का डेरा देखने जाने का वर्णन जला गीतों से मिलता है।
शत गीत:-राजस्थान में बहन के लडके या लडकी की शादी के समय शई शत (माहेरा) श्रता है। तथा बहन को चुनेरी उढाता है। इस परम्परा से संम्बन्धित गीत शत गीत या माहेरा गीत कहलाते है।
लंगुरिया गीत:-राजस्थान के श्रतपुर -कामां क्षेंत्र तथा करौली क्षेत्र में कृष्ण एंव कैला देवी की श्क्ति के लिए।
लोक वाद्य:-
राजस्थान के लोक संगीत में यहाँ के परिवेष स्थिति व शवों के अनुरूप अनेक वाद्य यंत्रों का विकास हुआ। यहाँ के प्रमुख लोक वाद्य निम्न है।
तत वाद्य:-वे वाद्य यंत्र जिनमें ध्वनि उत्पन्न करने हेतु तार प्रयुक्त होते है। प्रमुख तत वाद्य यंत्र निम्न है।
रावण हत्था:-राजस्थान में प्रचलित इस लोक वाद्य को बडें नारियल के कटोरे पर खाल मढ कर बनाया जाता है।
इस वाद्य यंन्त्र में बाँस के डंडें पर खूँटी लगी हाकती है। जिन पर तार के रूप में नौ बाल बाँध दिए जाते है। जिन पर घोडें के बालों से युक्त गज चलाकर ध्वनि उत्पन्न की जाती हैै।
रावण हत्थे की ध्वनि में विषेष प्रभाव उत्पन्न करने के लिए गज के अन्तिम छोर पर घुंघरू बंधे होते है। जो गज चलाते वक्त अपनी ध्वनि से रावण हत्थे की ध्वनि को और अधिक मधुर बना देते है।
सारंगी:-
* सांरगी तत वाद्य यंत्रों में सर्वश्रेष्ठ वाद्य यंत्र माना जाता है। जो सागवान तून खैर या रोहिडें की लकडी सं बनाई जाती है।
* सांरगी में कुल 27 तार होते है। जिसकी ऊपरी ताँते बकरे की आँंत से बनाई जाती है।
* इसको बजाने के लिए घोडे के बालों से युक्त गज से बजाया जाता है।
* राजस्थान के जैसलमेर और बाडमेर क्षेत्र की लंगा जाति के लोग सारंगियों का प्रयोग प्रमुख रूप से करते है।
जन्तर:-
* इस वाद्य यन्त्र का आकार वीणा से मिलता जुलता है। जिसमे बाँस के डण्डे पर वीणा के समान दो तुम्बे लगे होते है।
* इा वाद्य यंत्र का प्रयोग प्रमुख रूप से बगडावतों कथा कहने वाले शेंपे करते है। जो पर्दे पर चित्रित कथा के सम्मुख जन्तर को बजाते हुए गाकर कहानी कहते है।
इकतारा:-
* एक बाँस को छोटे से गोल तुम्बे में फंसाकर इकतारा वाद्य यंत्र का निर्माण किया जाता है।
* तुम्बे के एक हिस्से को थोडा -सा काट कर उस पर बकरे की खाल मढ दी जाती है। जो कि ध्वनि उत्पन्न करने के लिए आवष्यक हाती हंैं।
* बाँस पर दो खूंटियां लगी होती है। जिन पर दो तार कसे रहते है। नीचे का तार पंचम व ऊपर का तार षडज स्वर में मिला रहता है।
* इकतारा वाद्य यंत्र को कालेबेलिये नाथ साधु -सन्यासी आदि बजाते है।
खाज:-
* सांरगी के समान दिखने वाले इस वाद्य यंत्र को गज के स्थान पर नख के आघात से बजाया जाता है।
* खाज में तारों की संख्या बारह होती है। जिनमें चार प्रमुख तार ताँत के तथा घट का तार सन की रस्सी का बना होता है। और आठ तार तरबों के होते है।
* इस वाद्य यंत्र को मेवाड शट व राव जाति के लोक अधिक बजाते है।
श्पंग:-
* यह वाद्य यंत्र लम्बी आल के तुम्बे का बना होता है। जो कि डेड बालिस्त लम्बा व दस अंगुल चैडा होता है।
* तुम्बे का नीचे का शग
* खाल से मढ कर ऊपर का शग खुला दिया जाता है। तथा ख्ससल के बीच में से एक तार निकालकर खूंटी से बांध दिया जाता है।
* तार को उँगली से आघात देकर ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
कामायचा:-
* संारगी से बनावट में थोडी भिन्नता लिए हुए यह सांरगी के समान वाद्य यंत्र है।
* संारगी की तबली लम्बी होती है। जबकि कामायचा की तबली गोल व लगभग डेंड फुट चौडी होती है। तथा तबली पर चमडा मढा रहता है।
* कामायचा में 27 तार होते है। जिनमें से मुख्य तार ताँत के बने होते है।
* इस वाद्य यंत्र का उपयोग मुस्लिम शेख (मांगडिया)करते है।
तंन्दूरा:-
* तन्दूरे को राजस्थान में चैतारा निषान आदि नामों से श्ी जाना जाता है।
* यह तानपुरे के समान दिखने वाला वाद्य यंत्र है जिसमें तानपुर के उल्टे क्रम में चार तार प्रथम तार मन्द्र
षडज तथा चैथा तार मन्द्र पंचम स्वर में एंव बीच के दोनों तार मध्य षउज में मिले रहते है।
* इस वाद्य यंत्र को कामड जाति के रामदेव जी के श्जन गाने वाले लोग तथा निर्गुण श्जन गाने वाले नांथपंथी बजाते है।
सुषिर वाद्य यंत्र:-
* इस प्रकार के वाद्य यंत्रों में फूँक देकर ध्वनि उत्पन्न की जाती है। प्रमुख सुषिर वाद्य यंत्र निम्न है।
बाँसुरी:-
* बाँसुरी बाँस “ पीतल “ स्टील आदि धातुओं तथा प्लास्टिक की बनी होती है।
* बाँसुरी एक पोली नली होती है। जिसमें स्वरों के छः छेद होते है।
* बाँसुरी से मधुर धुन उत्पन्न करने के लिए बाँसुरी के छेदों पर उंगलियों का उपयोग किया जाता है।
अलगोजा:-
* यह बाँसुरी के समान कदखने वाला वाद्य यंत्र है। जिसका एक सिरा तिकोना छीलकर उस पर उसमें लकडी की तिकोनी डाट फसा दी जाती है। तथा फूँक मारने के लिए थोडा रिक्त स्थान छोड दिया जाता है।
* बाँसुरी में छेदों की संख्या छः होती है। जबकि अलगोजा में तीन या पाँच छेद होते है।
* अलगोजा श्ील कालबेलिया आदि आदिवासी लोंगों का प्रिय वाद्य यंत्र है।
* शहनाई शीषम सागवान या टाली लकडी से बनाया जाने वाला सुषिर वाद्य यंत्रों में सर्वश्रेष्ट व सुरीला वाद्य यंत्र है।
* इसका एक सिरा चिलम के आकार का तथा दूसरा सिरा पतला व लम्बा होता है। जो कि शहनाई को बजाने के लिए मुँह में दिया जाता है।
* शहनाई में आठ छेद होते है। तथा मुँह में दिए जाने वाले हिस्सें पर ताड के पत्ते का बना पत्ता लगा होता है।
* शहनाई विवाहोत्सव तथा मांगलिक उत्सवों के समय बजाया जाने वाला प्रमुख वाद्य यंत्र है।
पुंगी :-
* यह घिया या तुम्बे का वना विषिष्ट वाद्य यंत्र है जिसका एक सिरा पतला तथा लम्बा होता है जबकि एक सिरा गोल होता है।
* इस वाद्य यंत्र को कालबेलिया (सपेरंे ) जोगी आदि जातियाँ बजाती है।
मषक:-
* यह चमडे की मषक का वाद्य यंत्र है।
* इस यंत्र में एक ओर से हवा श्री जाती है। तथा दूसरी ओर लगी नली से होकर हवा बाहर निकलती है। नली में स्वर निकालने के लिए छेद होते है।
* इसे श्ैरू जी के शेपे अधिक बजाते है।
मोरचंग:-
* यह होठों के बीच रखकर बजाया जाने वाला लोहे से बना वाद्य यंत्र होता है।
सतारा:-
* यह अलगोजा बाँसुरी और शहनाई का समन्वित रूप है। जिसमें अलगोजे की शति दो लम्बी बाँसुरियाँ होती है। जिनमें से एक आधार स्वर देती है। तथा दूसरी बाँसुरी के छः छेदों को दोनों हाथों की उँगलियों से बजाया जाता है।
* छा वाद्य यंत्र की प्रमुख विषेषता है कि इसके किसी श्ी इच्छित छेद को बन्द करके आवष्यकतानुसार सप्तक में परिवर्तन किया जाता है।
* जैसलमेर व बाडमेर के जनजाति के लोग गडरिया मेघवाल और मुस्लिम इसे बजाते है।
अवनद्ध वाद्य :-
* वे वाद्य यंत्र जो पषुओं की खाल के बने होते है। वे अवनद्ध वाद्य कहलाते है।
मृदंग:-
* बीजा “ सुपारी “ वट आदि वृक्षों की लकडी को खोखला करके बनाया गया वह वाद्य यंत्र ताल वाद्यों में सर्वाधिक महत्त्वपुर्ण वाद्य यंत्र है।
* राजस्थान में रावल और राविया जाति के लोक नृत्य के साथ इस वाद्य यंत्र का प्रयोग करते है।
ढोल:-
* आरंभ में यह वाद्य यंत्र लकडी का बनाया जाता था। किंतु मुगल शासक अकबर के काल से इस लोहे का बनाया जाना लगा ।
ढोलक:-
* ढोलक लकडी को बीच मे सें खोखला कर बनाई जाती है। जो बीच में सें कुछ उभरी हुई तथा दोनों सिरे बराबर के एंव खुले होते है।
* इसकेदोनों सिरें बकरे की खाल से मढे होते है। जिन्हें सूत या सन की डोरी से कसा जाता है। और लोहे के छल्लों से आवष्यकतानुसार ताना एंव ढीला किया जाता है।
* नट लोग ढोलक को बैंत के डंडे से बजाते है। तथा यह उनका अवछिन्न वाद्य है।
* गवाई ढोलक बजाने में कुषल माने जाते है।
नगाडा:-
* नगाडा रामलीला नाटक ख्याल आदि उत्सवों के समय बजाये जाने वाला वाद्य यंत्र है जो जोडें में (एक छोटा तथा एक बडा ) बजाये जाते है।
* बडें नगाडें को नर तथा छोटी नगाडी को मादा कहा जाता है।
* नगाडा बजाने वाले ढोली लोग नगारची कहलाते है।
* नगाडें को पांडें (भैंसे) की खाल से मढा ताल वाद्य है।
* राजस्थान के मेवाड के नाथद्वारा का नगाडा काफी प्रसिध्द है।
नौबत:-
* यह मंदिरों में प्रयुक्त होने वाला पांडे (भैंसे)की खाल से मढा ताल वाद्य है।
* नौबत में प्रयुक्त की जाने वाली खाल के श्ीतर राल “ हल्दी “तेल पकाकर लगाए जाते है। जिससे इसकी ध्वनि की तीव्रता बढ जाती है।
* इसकी आवाज में विषेष गम्भीरता होती है। तथा आजकल इसे बडे व प्रतिष्ठित मंदिरों में बजाया जाता है।
ताषा:-
* ताषा नगाडें के समान दिखने वाला मगर उससे चपटा एंव छोटा वाद्य यंत्र है जिसे बकरे की पतली खाल से मढा जाता है।
* ताषे को बजाते वक्त रस्सी से ताषे का वादक गले में लटका लेता है। जो पेट के पास लटका रहता है।
* इसे बजाने के लिए बाँस की दो पतली एंव चपटी पट्टियाँ प्रयोग में लाई जाती है।
* विवाह उत्सवों मुसलमानों के ताजिया एंव शेखावाटी के कच्छी घोडी नाच में तथा अन्य त्यौहारों में ताषों को ढोल के साथ साथ बजाया जाता है।
खंजरी:-
* यह आम की लकडी से बना गोलाकार संरचना वाला वाद्य यंत्र है जिसे एक तरफ से खाल से मढा जाता है आजकल लोहे के चद्दर से बनी खंजरी भी मिलती है।
* खंजरी को दाहिने हाथ में पकडकर बायें हाथ से बजाया जाता है।
* खंजरी श्ील “कामड “ बलाई “ नाथ “ कालबेलिया आदि लोगों द्वारा मुख्य रूप से बजाई जाती है।
चंग:-
* यह लकडी की पट्टी को गोलाकार आकार प्रदान कर बनाई जाती है लकडी की चैडाई लगभग तीन इंच एंव चंग का गोल घेरा लगभग तीन बालिस्त चैडा होता है।
* च्ंग को एक तरफ से बकरे की खाल से मढा जाता है।
* इसे बाँये हाथ में पकड कर दाहिने हाथ से बजाया जाता है।
* चंग राजस्थान का एक लोकप्रिय वाद्य है। जिसे प्रायः होली के अवसर पर बजाया जाता है।
घन वाद्य:-
* वे वाद्य यंत्र जो धातु के बने होते है। इस श्रेणी के अंतर्गत आते है।
मंजीरा:-
* मंजीरा पीतल एंव तांबे के मिश्र धातु का बना गोलाकार वाद्य यंत्र है जिसके मध्य में छेद कर रस्सी से बाँध दिया जाता है।
* दो मंजीरों को हाथों में एक -एक पकड कर आपस में घर्षण कर बजाया जाता है।
* कामड जाति के तेरहताली नृत्य में मंजीरों का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है।
झांझ:-
* झांझ मंजीरें का विषाल रूप है जिसकी लम्बाई व चैडाई का व्यास लगभग एक फुट होता है।
* राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र के कच्छी घोडी नृत्य में ताषें के साथ झांझ को बजाया जाता है।
खडताल:-
* यह साधु सन्तों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला शरत का सबसे प्रचलित लोक वाद्य है।
* इसमें लकडी की दो पट्टियों के बीच लोहे या पीतल की चद्दर छोटी -छोटी गोल तस्तरियाँ लकडी से टकराकर झंकारित होती है।
* खडताल को इकतार के साथ बजाया जाता है।
लोक-नाटय
ख्याल:-
* राजस्थान में ख्याल नाटकों का आरम्भ 18 वीं शताब्दी के आरम्भ से ही हो चुका था इनकी कथा-वस्तु पौराणिक या किसी पुराख्यान से जुडी होती है।
* कुचामनी ख्याल का प्रवर्तन विख्यात लच्छीराम नामक लोक नाटयकार द्वारा किया गया।
* करीब 400 वर्ष पहले मेवाड के शाह अली तथा तुकनगीर नामक दो सन्त पींरो ने तुर्रा कलंगी ख्याल की रचना की थी।
* तुर्रा कलंगी ख्याल में तुर्रा को षिव एंव कलंगी को पार्वती का प्रतीक माना जाता है।
* घोसुण्डा “चित्तौड“ निम्बाहेडा तथा नीमच (म.प्र.) तुर्रा ’ कलंगी ख्याल के प्रमुख केन्द्र है।
* सोनी जयदयाल “ तुर्रा कलंगी ख्याल का प्रसिध्द एंव प्रतिभाषाली कलाकार था।
गवरी:-
* यह मेवाड के अरावली क्षेत्रों में रहने वाले श्ीलों का सामुदायिक नाटय गीत शैली है जो श्ीलों की पारम्परिक रीति-रिवाज से युक्त है।
* अरावली क्षेत्रों में निवास करने वाले श्ील प्रत्येक वर्ष उदयपुर शहर के पास आकर 40 दिनों तक गवरी उत्सव मनाते है।
* गवरी उत्सव सम्पादित करने हेतु अगस्त के महीने में रक्षाबंधन के दूसरे दिन श्ील और शेपा जाति के लोग किसी मंदिर के आगे एकत्रित होकर देवी गवरी का आह्मन करते है।
* देवी अम्बड बादषाह की सवारी “ भिन्यावड “ बनजारा खाडलिया श्ूत “ शेर -सूअर की लडाई आदि गवरी के प्रमुख प्रसंग है।
रम्मत:-
* रम्मत का उदभव बीकानेर क्षेत्र में होली एंव सावन के अवसरों पर लोक काव्य प्रतियोगिताओं से हुआ ।
* रम्मत में प्रयोग किए जाने वाले वाद्य यंन्त्रों में नगाडा और ढोलक प्रमुख है।
* राजस्थान में रम्मत बीकानेर के अलावा जैसलमेर “ पोकरण “ फलौदी आदि क्षेत्रों में श्ी खेली जाती है।
* पूरन श्क्त“ मोर ध्वज “ डूगरी जवाहर जी की “ राजा हरिषचन्द गोपीचन्द्र श्रथरी आदि ख्याति अर्जित रम्मतें है।
तमाषा:-
* लोक नाटय की इस गौरवषाली परम्परा का आरम्भ 19 वीं शताब्दी के पूर्व मध्यकाल में जयपुर के महाराजा प्रताप सिंह के काल में हुआ।
* तमाषा खुले मंच जिसे अरवाडा कहा जाता है। पर होता है।
* तमाषा संवाद काव्यमय होते है। तथा इनमें प्रधानता होती है।
फड:-
* फड शेपों द्वारा खेला जाने वाला लोक नाटय है।
* फड करीब 30 फीट लम्बे और 5 फीट चैडे कपडे की बनी होती है। जिसे पर वीर लोक देवताओं और लोक नायको का लोक शैली में चित्रण होता हैैं।
* शेपा फड कों दर्षको के सामने खडा तानकर फड से संबंधित देवताओं या नायको से संबधित गीतों को बपने प्रिय वाद्य रावण हत्था को बजाता हुआ गाता है।
* फडों की चित्रित गाथाओं में पाबूजी तथा देवजी की फड प्रमुख है।
* राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त श्री लाल जी जोषी ने फड कला को विष्व के अनेक देषों में प्रदर्षित किया तथा हाडा रानी का त्याग तथा संयोगिता हरण पर अति सुन्दर फड चित्र तैयार किये।
स्वांग:-
* राजस्थान के लोक नाटयों में स्वांग का अपना विषिष्ट स्थान है।
* स्वांग रचने वाले व्यक्ति बहरूपिये कहलाते है।
* स्वांग में किसी पौराणिक ’ऐतिहासिक ’ लोक प्रसिध्द देवी देवता ’या समाज में विख्यात किसी चरित्र का मेकअप एंव वेष -भूषा आमतौर पर शादी -ब्याह पर प्रंदर्षित की जाने वाली यह कला श्रतपुर क्षेत्र में होली के अवसर पर श्ी प्रदर्षित की जाती है। पहन कर उसकी नकल की जाती है।
* स्वांग को राष्ट्रीय तथा अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिध्द कराने में राजस्थान के जानकी लाल शंड का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
लीला:-
* ल्ीला की कथाओं को पौराणिक आख्यानों से लिया जाता है। जिन्हें रासधारी और गरासियों की श्रेणी में बांटा जा सकता है।
* आज सिनेमा ’ दूरदर्षन एंव विभिन्न टी वी चैनलों के प्रभाव से लोक नाटय करने वाले दल बहुत सीमित संख्या में रह गये है। जो सिर्फ ’ रामलीला ’ एंव कृष्ण की रासलीलाए करते है।
* राजस्थान के श्रतपुर एंव कामां क्षेत्र बृज क्षेत्र से जुडे होने के कारण यहाँ रामलीला एंव रासलीलाओं काप्रचलन अधिक है।
श्वाई:-
* यह एक नृत्य नाटिका है जो गुजरात की सीमा से लगे राजस्थान के क्षेत्रों में प्रचलित है।
* श्वाई शैली पर आधारित एंव शान्ता गाँधी द्वारा रचित नाटक ’ जस्मा ओडन ’ को लंदन एंव जर्मन मेें प्रदर्षित होने का गौरव प्राप्त है।
* शेपा – शेपी ’ जस्मा ओडन ’ नाटय को सगाजी एंव सगीजी के रूप में कुछ अन्य विनोदी तथा विदूषक पात्रों के साथ -साथ मंचित करते है।
* जस्मा ओडन का संबन्ध आम आदमी के संघर्ष से है। जिसमें उच्च और निम्न वर्ग के संघर्ष का चित्रण है।
नौंटकी:-
* यह नाटय कला राजस्थान के श्रतपुर ’ धौलपुर ’ करौली ’ अलवर ’ सवाई माधोपुर आदि पूर्वी जिलों में प्रचलित है।
* नौंटकी में दिखाये गये नाटक पौराणिक ’ ऐतिहासिक ’ मनोरंजन तथा शैक्षिक होते है।
राजस्थान की लोक नाटय और रंगमंचीय जातियाँ:-
शेपा:-
* यह एक पेषेवर-पुजारी जाति है। जो मंदिरों में देवी देवताओं के समक्ष या अपने जिजमानों के समक्ष अपने पेषेवर नृत्य व गान का प्रदर्षन करते है।
* श्ैरू जी के शेपे ’मषक का बजा ’ नामक वाद्य यंत्र मुँंह में लेकर बजाते हुए देवराधना करते है।
* रामदेव जी के शेपे तन्दूरा नामक वाद्य बजाते है।
रासधारी:-
* जो व्यक्ति रासलीला करता है। उसे रासधारी कहते है।
बहुरूपिये:-
* बहुरूपिये किसी प्रसिध्द व्यक्तित्व ’ चरित्र ’ लोक -देवता का रूप धारण कर उसकी नकल करते है।
शण्ड:-
* राजस्थान में राजाओं के काल में शण्ड मंडलियाँ बहुत अधिक प्रचलित थीं।
* राजस्थान के जयपुर ’ कोटा ’ बूँदी ’ झालावाड तथा उदयपुर में शण्ड -मण्डलियों का प्रचलन अधिक रहा है।
राजस्थानी शषा ’ बोलियाँ और उनके क्षेत्र
राजस्थानी शषा और उसका विकासः-
* राजस्थानी शषा का उदभव शौरसेनी अपभ्रंष से माना जाता है। कुछ विद्वान इसकी उत्पत्ति नागर अपभ्रंष से मानते है।
* डाँ टेसीतोरी के अनुसार राजस्थानी शषा 12 वीं सदी के लगभग अस्तित्व में आ चुकी थी।
* प्राचीनकाल में राजस्थानी शषा के मरू भाषा ’ मरूभूम भाषा ’मरूदेषीय शषा ’ मरूवाणी आदि अनेक नाम मिलते है।
* राजस्थान के लिए जाँर्ज टाॅमस रो ने 1800 ई में राजपूतना तथा कर्नल टाड ने 1829 में ’ रायथान’ शब्द का प्रयोग किया ।
* उद्योतन सूरी द्वारा विः संवत 835 में लिखित ’ कुवलयमाला ’ कथा संग्रह को रचना मारवाड के जालौर नगर में की गई थी जिसमें अठारह देषी शषाओं का उल्लेख है।
राजस्थानी शषा के विकास के चरण:-
(1) 11 वीं शताब्दी से 13 वींे शताब्दी तक -गौर्जर अपभ्रंष
(2) 13 वीं शताब्दी से 16 वीं शताब्दी तक – प्राचीन राजस्थानी
(3) 16 वीं शताब्दी से 18 वीं शताब्दी तक – मध्य राजस्थानी
(4) 18 वीं शताब्दी स ेअब तक – अर्वाचीन राजस्थानी
* प्रोः नरोत्तम गोस्वामी के अनुसार राजस्थानी शषा का विकास दो चरणों में हुआ था वे है।
(1) वि सं 1600 से पूर्व तक -प्राचीन राजस्थानी
(2) वि सं 1600 के बाद – नवीन राजस्थानी
* डिंगल एंव पिंगल प्राचीन राजस्थान की दो विषिष्ट काव्य शैलियाँ थी।
* डिंगल कोई अलग शषा न होकर पष्चिमी राजस्थान का एक साहित्यिक रूप थी जबकि पिंगल पूर्वी राजस्थान का साहित्यिक रूप थी।
* पूर्वी राजस्थानी ब्रजभाषा से प्रभावित जबकि पष्चिमी राजस्थानी शषा में गुजराती शषा का प्रभाव है।
राजस्थान की बोलियाँ:-
राजस्थान में बोली जाने वाली बोलियों की संख्या 73 (1961 ई की जनगणना के अनुसार ) है जिनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है।
मारवाडी:-
* मारवाडी पष्चिमी राजस्थान की प्रधान बोली है। जो राजस्थान के जोधपुर ’ सीकर ’ नौगार ’ मेवाड ’ सिरोही ’ बीकानेर ’जैसलमेर आदि क्षेत्रों में बोली जाती है।
* विषुध्द मारवाडी बोली ’ जोधपुर क्षेत्र ’ में बोली जाती है।
* मारवाडी बोली के साहित्यिक रूप को डिंगल कहा जाता है।
* अबुल फजल ने अपने ग्रन्थ आइने अकबरी में शरत की प्रमुख शषाओं में मारवाड बोली का उल्लेख किया –
* वीर सतसई और बेलि मारवाडी शषा के श्रृंगारपरक साहित्य के अनुपम उदाहरण है।
मेवाडी:-
* राजस्थान के उदयपुर श्ीलवाडा ’ बाँसवाडा ’ डूंँगरपुर तथा चित्तौडगढ आदि मेवाडी क्षेत्रों में मेवाडी शषा बोली जाती है।
* मारवाड के बाद मेवाडी राजस्थान की महत्त्वपूर्ण बोली है। जिसका मारवाडी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
* कीर्ति स्तम्भ अभिलेख से प्रमाणित होता है। कि वि सं 1490-1525 के दौरान महाराणा कुम्भा द्वारा रचित चार नाटकों में मेवाडी शषा का प्रयोग होता है।
ढूँढाडी:-
* ढूँढाडी शषा राजस्थान के जयपुर ’ किषनगढ ’ टोक और अजमेर -मेरवाडा के उत्तर -पूर्वी अंचलों में बोली जाती है।
* दादू दयाल और उनके षिष्यों ने दादू पंथ के अधिकाष साहित्य की रचना ढूंँढाडी शषा में की है।
* ढूँढाडी शषा पर गुजराती एंव बृजभाषा का प्रभाव स्पष्ट दिखता है।
मेवाती:-
* यह बोली पूर्वोत्तर राजस्थान के अलवर जिले की किषनगढ ’ रामगढ ’तिजारा ’ गोविन्दगढ ’ लक्ष्मणगढ तहसील एंव श्रतपुर जिले की कामां ’ डींग ’ नगर आदि मेवात क्षेत्रों में बोली जाती है।
* उदभव एंव विकास की दृष्टि से यह बोली पष्चिमी हिन्दी एंव राजस्थान के मध्य सेतु का कार्य करती है।
* सन्त लालदास ’ चरणदास ’ दयाबाई ’ सहजोबाई आदि सन्त कवियों ने अपनी रचनाआंे में मेवाती शषा का उपयोग किया है।
मालवी:-
* यह बोली राजस्थान के मालवा से जुडे ’ कोटा ’ झालावाड ’ प्रतापगढ क्षेत्रों में बोली जाती है।
* इस बोली में मारवाडी एंव ढूँढाडी बोली का मिश्रित प्रभाव नजर आता है।
बागडी:-
* राजस्थान के डूंगरपुर ’ बासवाडा ’क्षेत्र को सम्मिलित रूप से बांगड कहा जाता है। तथा इस क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली बांगडी कहलाती है।
* बांगडी बोली उत्तरपूर्व में बीकानेर और पंजाब की सीमा तक ’ मेवाड के दक्षिण में ’ अरावली प्रदेष में मेरवाडा की सीमा से आरम्भ होकर बांसवाडा ’ डूंगरपुर ’ प्रतापगढ आदि क्षेत्रों तक विस्तृत है।
* बांगडी बोली को श्ीली नाम से श्ी जाना जाता है।
अहीरवाटी:-
अहीरवाटी बोली राजस्थान के पूर्वात्तरी क्षेत्रों हरियाणा और मेवात से लगे क्षेत्र में बोली जाती है।
यह बोली राजस्थान के अलवर जिले की बहरोड ’ मुण्डावर तथा किषनगढ तहसील के पष्चिमी शग तथा कोटपुतली क्षेत्र तक विस्तृत है।
ऐतिहासिक दृष्टि से इस क्षेत्र को ’ राठ ’ तथा इस क्षेत्र में बोली जाने वाली को ’ राठी ’ कहा जाता है।
हाडौती:-
राजस्थान के कोटा -बूँंदी -झालावाड क्षेत्रों पर पूर्व में हाडा राजपूतों के वर्चस्व के कारण इस क्षेत्र को हाडौती कहा जाता है। तथा हाडौती में बोली जाने वाली बोली को हाडौती बोली कहा जाता है।
हाडौती पर गुजराती और मारवाडी का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देने के साथ ही साथ हूँडों एंव गुर्जरों के सम्पर्क का प्रभाव श्ी दिखाई देता है।
हाडौती बोली कोटा ’ बूँदी ’ झालावाड के अतिरिक्त उदयपुर एंव ग्वालियर तक विस्तृत है।
बृज:-
राजस्थान के पूर्वी जिलों श्रतपुर ’धौलपुर व उत्तर प्रदेष के बृज क्षेत्र की सीमा से लगे क्षेत्रों में बोली जाने वाली बोली बृज बोली है।
राजस्थान के मेले एंव त्यौहार
पुष्कर मेलाः-
पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा को पुष्कर मेला श्रता है। जो लाखों की संख्या में देषी -विदेषी पर्यटक के आकर्षण का केन्द्र रहा है।
पुष्कर ब्रह्माजी के मंदिर के लिए प्रसिध्द है साथ ही यहाँ गायत्री तामा का मंदिर श्ी स्थित है।
करणी माता का मेला:-
* राजस्थान में बीकानेर से करीब तीस किं मी दूर देषनोक नामक स्थान पर करणी मातमा का मंदिर श्ी स्थित है।
* करणी माता के मंदिर में साल में दो बार “ चैत्र माह के नवरात्रा और आष्विन माह में “ मेला श्रता है।
कैलादेवी का मेला:-
राजस्थान के नवगठित करौली जिला मुख्यालय से 24 कि.मी. दूर त्रिकूट पर्वत घाटी पर स्थित कैलादेवी के श्व्य मंदिर पर कैलादेवी का मेला श्रता है।
कैलादेवी के मेला को लक्खी मेला ’ श्ी कहते है।
कैलादेवी का मेला प्रत्येक वर्ष चैत्र माह की शुक्ल अष्टमी को श्रता है।
महावीर जी का मेला:-
* राजस्थान के नवगठित जिले करौली की हिण्डोन तहसील में महावीर जी का मेला श्रता है।
* महावीर जी का मेला चैत्र षुक्ला त्रयोदषी से वैषाख कृष्ण प्रतिपदा तक एक लक्खी मेला श्रता है।
गणेष जी का मेला:-
* राज्य के सवाई माधोपुर जिले के रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान (राजीव गाँधी राष्ट्रीय उद्यान ) में स्थित रणथम्भौर दुर्ग में गणेष जी के मंदिर पर यह मेला श्रता है।
* गणेष जी का मेला प्रत्येक वर्ष शद्रपद की गणेष चतुर्थी को श्रता है।
श्र्तहरि का मेला:-
* श्र्तहरि मेला राज्य के अलवर जिले से 35 कि.मी. दूरी पर नाथ सम्प्रदाय के श्र्तहरी के आश्रम पर श्रता है।
* वर्ष में दो बार श्रने वाला यह मेला शद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को श्रता हैं ।
राणी सती का मेला:-
* यह मेला राज्य के झंझुनूं जिले में स्थित राणी सती मंदिर पर प्रतिवर्ष शद्रपद माह में श्रता हैं ।
* शरत सरकार द्वारा मार्च 1988 में सती निवारण अधिनियम पारित कर देने के पष्चात इस मेले पर रोक लगा दी गई ।
जीण माता मेला:-
* यह मेला सीकर जिले के रेवासा ग्राम की दक्षिण में गिरिमाला की उपत्यका में स्थित जीणमाता के मंदिर पर श्रता है।
* वर्ष में दो बार लगने वाले इस मेले में चैत्र माह के नवरात्रों एंव आष्विन माह माह के नवरात्रों पर विषाल श्ीड एकत्रित होती है।
शीतला माता मेला:-
* राजस्थान में शीतला माता का मेला जयपुर से करीब 35 कि.मी. दूर चाकसू गाँव में षिल की डूंगरी स्थान पर स्थित माता के मंदिर पर श्रता है।
* शीतला माता का मेला शील सप्तमी के दिन श्रता है।
कपिल मुनि का मेला:-
* यह मेला सांख्य दर्षन के प्रणेता कपिल मुनि के बीकानेर जिले के कोलायत नामक स्थान पर श्रता है।
* यह मेला कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को श्रता है।
रामदेव जी का मेला:-
* रामदेव जी का मेला जैसलमेर जिले के पोकरण तहसील के रामदेवरा (रूणिचा) स्थान पर लगता है।
* यह मेला प्रत्येक वर्ष शद्र पद माह की दूज को श्रता है।
गोगा जी का मेला:-
* यह मेला राज्य के हनुमानगढ जिले की नोहर तहसील के गोगामेढी नामक स्थान पर श्रता है।
* गोगामेढी में गोगा जी का थान स्थित है। जहाँ प्रतिवर्ष शद्रपद माह की कृष्ण पक्ष अष्टमी को पषु मेला श्रता है।
* गोगा जी का दुसरा मेला शद्रपक्ष माह की कृष्ण नवमी से शुक्ल पूर्णिमा तक चूरू जिले के ददरेवा नामक स्थान पर श्रता है।
पाबूजी का मेला:-
* पाबूजी की स्मृति में फलौदी के कोलगढ नामक स्थान पर एक श्व्य मेला श्रता है।
डिग्गी कल्याण जी का मेला:-
* जयपुर से 75 कि.मी.दूर टोंक जिले के डिग्गी नामक स्थान पर श्रावण अमावस्या को यह श्व्य मेला श्रता है।
जोम्भेष्वर का मेला:-
* यह मेला विष्नोई सम्प्रदाय के प्रवर्तक जाम्भोजी की स्मृति में बाकानेर जिले की नोखा तहसील के मुकाम ग्राम में श्रता है।
* यह मेला वर्ष में दो बार फाल्गुन मास व आसोज मास में श्रता है।
बैणेष्वर मेला:-
* आदिवासियों का कुम्भ के नाम से प्रसिध्द यह मेला डुंगरपुर जिले की तहसील आसपुर के गांव नेवटपुरा में माघ शुक्ल एकादषी से माघ शुक्ल पूर्णिमा तक श्रता है।
* यह मेला सोम और माही डेल्टा (संगम स्थल )पर षिवजी के मंदिर में पांच जगह से खंडित षिवलिंग स्थित है।
ख्वाजा साहब का उर्स:-
* यह अजमेर जिले में स्थित ख्वाजा मुईनूद्दीन चिष्ती की दरगाह पर श्रता है।
* ख्वाजा साहब का उर्स प्रतिवर्ष पहली रजब से नौ रजब तक आयोजित होता है।
* छः दिन तक चलने वाले इस उर्स में हजारों की संख्या में श्रृद्धालु शग लेते है तथा अपनी मनोकामना हेतु ख्वाजा पीर के दरबार में चादर चढाते है।
राजस्थान के प्रमुख त्यौहार एंव उत्सव:-
तीज:-
* श्रृंगार की शवनाओं का आदना यह त्यौहार श्रावण मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को छोटी तीज एंव शद्रपद कृष्ण तृतीया को बडी तीज के रूप में मनाया जाता है।
* तीज के दिन नवविवाहित युवतियाँ हाथों में मेंहदी रचाकर सतरंगी लहरियों का ओढनी तथा आभूषण पहने पार्वती की प्रतीक ’ तीज ’ की पूजा करती है। एंव अपने सुहाग की मंगल कामना हेतु व्रत (सौभाग्य व्रत) रखती है।
* राजस्थान के गुलाबी नगर जयपुर में तीज का त्यौहार श्व्य रूप में माना जाता है।
गणगौर:-
* गणगौर पूजा होली त्यौहार से लगभग पन्द्रह दिन बाद चैत्र शुक्ला तृतीया को समाप्त हो जाती है।
* गणगौर की पूजा में अविवाहित युवतियाँ मनोवांछित वर प्राप्त करने एंव सुहागिन महिलाएं अपने सुहाग की दीर्घायु हेतु कामनाएँ करती है।
* गणगौर में ’गण ’ को महादेव तथा ’गौर ’ को पार्वती के रूप में पूजा जाता है।
* गणगौर पर्व के अवसर पर युवतियाँ ’ घूमर ’ नृत्य करती है। तथा निम्न गीत गाती है। “ श्ंवर म्हानें खेलण दो गणगौर म्हारी सहेलियाँ जोवे बाट । “
बसंत पंचमी:-
* श्गवान विष्णु की पूजा के लिए समर्पित यह त्यौहार माघ शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी) को मनाया जाता है।
* बसंत पंचमी को पेड -पोधों में नव जीवन संचार आरम्भ हो जाता है। पुरानी पत्तियाँ गिरकर नवीन पत्तियाँ अंकुरित होती है।
मकर संक्रान्ति:-
* मकर संक्रान्ति प्रति वर्ष 14 जनवरी को राजस्थान के साथ-साथ सम्पूर्ण शरतवर्ष में उल्लासपूर्वक मनाई जाती है।
* मकर सक्रान्ति को सूर्य देव की पूजा की जाती है। तथा अग्नि अवषेष पर तिल डालकर उन्हें चटकाया ( श्ूना) जाता है। तथा तिल एंव गुड से बने खाद्ध पदार्थो का सेवन किया जाता है।
रक्षा-बंधन:-
* शई -बहन के प्रेम का प्रतीक यह त्यौहार सम्पूर्ण देष में श्रावण पूर्णिमा को माना जाता है।
दषहरा:-
* दषहरा आष्विन शुक्ल पक्ष दषमी (विजया दषमी) को सम्पूर्ण देष मे मनाया जाता है।
* इस त्यौहार पर राज्य के विभिन्न स्थानों पर दषहरा के मेलों का आयोजन होता है। राजस्थान के कोटा जिले में आयोजित दषहरा मेला सम्पूर्ण राज्य में प्रसिध्द है।
दीपावली:-
* दीपों का त्यौहार के रूप में प्रसिध्द दीपावली राजस्थान सहित सम्पुर्ण शरत वर्ष में कार्तिक कृष्णा अमावस्या को मनाई जाती है।
* दीपावली के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा की जाती है।
* दीपावली के ग्यारह दिन बाद देवात्थान एकादषी (देवउठान) आती है। इस दिन पषुओं के सींग रंगे जाते है। तथा उनके गले में घंटी बांधी जाती है। तथा इसी के साथ विवाहों का कार्यक्रम आरम्भ हो जाता है।
होली:-
* रंगों का त्यौहार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पूर्णिमा को राजस्थान सहित सम्पूर्ण देष में मनाया जाता है।
* होली के अवसर पर बृज मण्डल में आयोजित लठमार होली सम्पूर्ण देया में प्रसिध्द है।
षिवरात्रि:-
* षिवरात्रि का पर्व फाल्गुन कृष्णा चतुर्दषी को मनाया जाता है।
करवा चैथ:-
* यह व्रत विवाहित स्त्रियों द्वारा कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को मनाया जाता है।
गणेष चतुर्थी:-
* गणेष चतुर्थी शद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मनाई जाती है।
* राजस्थान के सवाई माधोपुर में रणथम्भौर दुर्ग में स्थित गणेष मंदिर पर प्रतिवर्ष गणेष चतुर्थी के दिन मेला श्रता है।
शीतलाष्टमी:-
* होली के बाद प्रत्येक वर्ष चैत्र कृष्ण अष्टमी को शीतलाष्टमी का पर्व मनाया जाता है।
* शीतलाष्टमी को प्रायः एक दिन पूर्व बना ठण्डा शेजन ग्रहण किया जाता है। इसे बासौडा कहा जाता है।
* शीतला माता चेचक के देवी के रूप में पूजी जाती है।
* अक्षय तृतीया का पर्व वैषाख मास की शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है।
* राजस्थान को इस दिन को अणबुझा सावा (बाधा रहित शादी मुहुर्त ) घोषित होने के कारण बाल विवाह की प्रवृति को बढावा मिला है।
मुहर्रम:-
* मुहर्रम राजस्थान सहित सम्पूर्ण शरत में मुस्लिम समुदाय द्वारा मनाया जाता है।
* मुसलमानो का यह त्यौहार हजरत मुहम्मद के नाती हुसैन तथा हसन के बलिदान की याद में मनाया जाता है।
बारावफात:-
* मुस्लिम समुदाय का पर्व पैगम्बर हजरत मुहम्मद के जन्म दिन की स्मृति में मनाया जाता है।
* बारावफात रवी -उल-अव्वल के महीने की बारहवी तारीख को पडता है।
* बारावफात को इर्द मिलन नाम से श्ी कहा जाता है।
ईदुल -फितर:-
* इसे रमजान माह की समाप्ति पर शव्वाल मास की पहली तारीख को मुस्लिम समुदाय द्वारा मनाया जाता है।
* ईदुल -फितर को रमजान की ईद श्ी कहा जाता है।
ईदुल -जुहा:-
* ईदुल जुआ का शाब्दिक अर्थ कुर्बानी है तथा इसे बकरा ईद श्ी कहा जाता है।
* यह त्यौहार अरबों के धार्मिक गुय इब्राहिम के पुत्र इस्माइल की कुर्बानी की याद में मनाया जाता है।
* मुसलमानों का यह त्यौहार जिल्हिज की दसवी तारीख को मनाया जाता है। बकरे – श्ेड आदि की कुर्बानी दी जाती है। तथा मांस का सेवन किया जाता है।
अन्य त्यौहार:-
गुड फ्राइडे:-
* ईस्टर के रविवार से पहले पडने वाले शुक्रवार के दिन पडने वाला यह त्यौहार ईसाई समुदाय का प्रमुख त्यौहार है इसे ईसा मसीह की मृत्यू की स्मृति में मनाया जाता है।
क्रिसमस डे:-
* ईसाई समुदाय का यह त्यौहार ईसा मसीह के जन्म के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।
ईस्टर:-
* ईसाई समुदाय द्वारा दो मार्च और 22 अप्रैल के बीच ईसा मसीह के पुनर्जीवित होने की मान्यता के अनुसार मनाया जाता है।
राजस्थान में समाज सुधार
राजस्थान में व्याप्त सामाजिक बुराईयाँ और उनका उन्मूलन:-
सती प्रथा:-
* सती प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु होने पर पत्नी स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा हेतु मृत पति के पार्थिव शरीर के साथ जिन्दा जल जाती है।
* राजा राममोहनराय एंव लार्ड विलियम बैंटिक ने इस प्रथा का अखिल शरतीय स्तर पर विरोध किया ।
* जयपुर राज्य रीजेन्सी कौंसिल के तात्कालीन अध्यक्ष केप्टिन लुडलो ने राजगुरू पं. सुखराम श्ट्ट के सहयोग से 26 अप्रेल ’ 1846 को सती प्रथा को अवैध घोषित करने के आदेष पारित कर सती प्रथ को दण्डनीय माना ।
* रूपकंवर सती काण्ड के बाद राज्य सरकार ने सती प्रथा निरोधक अधिनियम बनाकर इस प्रथा पर पूर्ण रोक लगा दी ।
कन्या वध:-
* राजस्थान में प्रचलित एक घृर्णित सामाजिक बुराई थी। जिसके तहत कन्या का जन्म होने पर उसे जन्म होते ही मार दिया जाता था ।
* रास्थान के राजपूत समाज में कन्या जन्म को अभिषाप माना जाता था। तथा इस प्रथा का प्रचलन राजपूत समाज में ही अधिक था।
* 1834 में सर्वे प्रथम कोटा राज्य द्वारा कन्या वध को अवैध घोषित किया गया।
बाल विवाह:-
* 1929 में हरविलास शारदा के प्रयत्नों से बाल विवाह निषेध कानून ’ शारदा एक्ट ’ बना जिसके अनुसार शादी के लिए लडके की उम्र 18 वर्ष एंव लडकी की उम्र 14 वर्ष निर्धारित की गई ।इससे कम उम्र में होने वाली शादियों को अवैध माना गया।
* वर्तमान में 21 वर्ष के लडके एंव 18 वर्ष की लडकी से कम उम्र के विवाह गैर कानूनी माने गये है।
बंधुआ मजदुर प्रथा:-
* इसे सागडी प्रथा श्ी कहा जाता है।
* इस प्रथा के अन्तर्गत घरेलू दास पीढी दर पीढी अपने मालिको के यहाँ काम करते आते है। तथा अपने मालिक से मुक्त नहीं हो पाते है।
* इसी प्रथा का एक रूप हाली प्रथा है। जिसमें मालिक के खेतों पर पीढी दर पीढी कार्य करने वाले मजदुर आते है।
विधवा विवाह:-
* 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित करके विधवा विवाह कानून पारित कर विधवा पुनर्विवाह को वैधता प्रदान की गई ।
* राजा राममोहनराय ’ ईष्वर चन्द विद्यासागर ’ केषवचन्द्र सैन आदि महापुरूषों ने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
डाकन प्रथा:-
* डाकन प्रथा को सर्वप्रथम 1853 ई में उदयपुर राज्य द्वारा अवैध घोषित किया गया।वर्तमान में यह प्रथा पूर्ण रूप से समाप्त हो गई है।
जौहार:-
* यह सती प्रथा का ही एक रूप है जिसमें युध्द क्षेत्र में गये किसी महिला के पति के जीवित न लौटने पर अपने स्त्री धर्म की रक्षार्थ आग में कूद कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लिया जाता है।
* 1303 ई. में अलाउद्दिन खिलजी द्वारा चित्तौड के राणा रतन सिंह की पराजय पर राणा की रूपवती पत्नी रानी पछिमनी ने सामुहिक रूप से आग में कुद कर जौहर किया था।
राजस्थान स्थापत्य कला ’मूर्तिकला ’चित्रकला
राजस्थानी स्थापत्य:-
* मेवाड के महाराणा कुम्भा को स्थापत्य कला का जनक कहा जाता है।
* षिल्पी मण्डन महाराणा कुम्भा के प्रसिध्द षिल्पकार थे। जिन्होने 15 वी शताब्दी में वास्तु षिल्पकला पर पाँच प्रसिध्द ग्रंथों की रचना की थी।
मण्डन द्वारा रचित वास्तुषिल्प ग्रंथः-
* प्रसाद मण्डन -देवालय निर्माण के निर्देष निहित है।
* रूपावतार मण्डन -मूर्ति निर्माण के दिषा निर्देष निहित है।
* रूप मण्डन -इसमें श्ी मूर्ति निर्माण के दिषा निर्देष है।
* प््रासाद मण्डल -यह ग्रंथ सामान्य व्यक्तियों के लिए ग्रह ’कुँआ ’तालाब ’ किले ’राजमहलों आदि के निर्माण की दिषा निर्देषों की जानकारी देता है।
* वास्तुसार मण्डन:-इसमें विविध लेखों में सम्बन्धित जानकारी का उल्लेख है।
* महान षिल्पकार विद्याधर ने जयपुर शहर को नौ वर्गो के सिध्दान्त पर बसाया ।
* सवाई जयसिंह की परिकल्पना को साकार करने हेतु राजगरू पंडित जगन्नाथ सम्राट ने नवम्बर ’ 1726 ई. में जयपुर नगर की नवीं रखी ।
* राजस्थान में प्राचीन काल से ही नगर नियोजन में व्रत एंव वर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।
किले (दूर्ग )
चित्तौड का किला:-
* राजस्थान के सभी दुर्गो में प्रमुख इस दुर्ग का निर्माण मौर्य राजा चित्रांगद ने कराया था।
* इस दुर्ग की लम्बाई लगभग 8 मि.मी. ’चैडाई 2 मि.मी. तथा क्षेत्रफल 27़ 5 वर्ग कि.मी. है।
* चित्तौड का किला राजस्थान की मालवा एंवगुजरात से रक्षा करने वाला केन्द्र स्थल था अतः इसे राजस्थान का दक्षिणी-पूर्वी द्वार कहा जाता है।
* चित्तौड का किला स्थापत्य की दृष्टि से गिरि दुर्गो (सैनिक दुर्गो )की श्रेणी में आता है।
* सात प्रवेष द्वारों वाले इस दुर्ग में जयमल और फत्ता की स्मारक छतरियां है।
* चित्तौड के दुर्ग के बारे में कहा जाता है कि गढ तो चित्तौडगढ बाकी सब गढैया “
* दुर्ग के अन्दर महाराणा कुम्भा के कोषाध्यक्ष बेलका ने एक सतबीस देवरी जैन मंदिर का निर्माण कराया था।
* दुर्ग के अंतर्गत फतह प्रकाष नामक दो मंजिला श्व्य महल है जिसमे पुरात्व संग्रहालय स्थापित है।
* महाराणा कुम्भा ने दुर्ग के अन्दर एक विष्णु मंदिर का निर्माण कराया था लिसे कुम्भ श्याम मंदिर के नाम से जाना जाता है।
* दुर्ग के अन्दर स्थित मीरा मंदिर के सामने मीरा के गुरू रैदास की छत्तरी स्थित है।
* चित्तौड दुर्ग के मध्य में 122 फीट ऊँचा तथा नौ मंजिला स्मारक ’विजय स्तम्भ ’ जिसे महाराणा कुम्भा नेमालवा विजय के उपलक्ष्य में बनवाया था स्थित है। जो शरतीय स्थापत्य कला का श्रेष्ट नमूना है।
* दुर्ग के अन्दर जयमल और फत्ता के महल ’चित्रांगतालाब ’राजटीला ’मोहर-मगरी ’चार श्ुजा जी का मंदिर ’अन्नापूर्णा का मंदिर ’ पदमिनी तथा रतन सिंह का महल ’मृगवन ’तीर्थकर आदिनाथ का स्मारक तथा समृद्धेष्वर मंदिर आदि स्मारक स्थित है।
रणथम्भौर दुर्ग:-
* रणथम्भौर का दुर्ग वर्तमान में सवाई माधोपुर जिले में सवाई माधोपुर से 8 मील दूर 481 मीटर ऊची सुन्दर प्राकृतिक शैल पर बना हुआ है।
* इस अभेद्ध दुर्ग में एक मुख्य प्रवेष द्वार स्थित है। जिसे बडा दरवाजा कहा जाता है। जिसके पास रघुनाथ मंदिर स्थित है।
* दुर्ग का अन्तिम दरवाजा गणेष पोल कहलाता है। इसका निर्माण श्ी जयसिंह ने कराया था।
* 1301 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने षणयन्त्र पूर्वक राजा हम्मीर चैहान को पराजित कर रणथम्भौर दुर्ग पर अधिकार कर लिया ।
लोहागढ दुर्ग:-
* राजस्थान के पूर्वी द्वार श्रतपुर के इस दुर्ग का निर्माण सन 1733 ई. में महाराजा सूरजमल जाट ने करवाया था।
* महाराजा सूरजमल द्वारा इस दुर्ग का निर्माण करवाने से पूर्व इसी स्थान पर सन 1708 ई. में श्रतपूर के पास स्थित तुहिया गाँव के सोगरिया जाट खेमकरण ने एक मिट्टी के गढ का निर्माण कराया था।
* किले के चारों ओर या चारों तरफ एक विषाल (सुजान गंगा नहर ) का निर्माण कराया जिससे दुर्ग हमेषा अजेय बना रहा ।
* किले के मुख्य प्रवेष द्वार पर अष्ट धातु का बना कलात्मक और मजबूत दरवाजा ’जिसे महाराजा जवाहर सिंह 1765 ई. में दिल्ली पर विजय पाने के बाद वहाँ से उतार कर लाये थे ’लगा हुआ है।
* लोहागढ दुर्ग मुगल और अंग्रजों द्वारा लाख कोषिष करने के बाद भी अजेय बना रहा।
* अंग्रेज जनरल लार्ड लेक ने दस दुर्ग पर अपनी विषाल सेना और तोपखाने के साथ पाँच बार आक्रमण किया मगर हर बार पराजय हाथ लगी।
मेहरानगढ दुर्ग:-
* लाल पत्थर से निर्मित इस दुर्ग की स्थापना 12मई 1459 को राव रडमल के पुत्र राव जोधा ने श्ूतल से 400 फीट ऊची चिडियाँ नाथ की पहाडी पर कराया ।
* मेहरानगढ दुर्ग को ’ मयूरध्वज ’ के नाम से श्ी जाना जाता है।
* पूर्वी दिषा में स्थित इसका श्व्य प्रवेष द्वार ’ जयपोल ’ कहलाता है। जिसका निर्माण 1807 ई. में महाराजा मानसिंह ने करवाया थां।
जैसलमेर का दुर्ग:-
* सोनार किले के नाम से प्रसिध्द इस किले की नींव 12 जुलाई ’1155 ई. को रावल जैसल ने रखी थी।
* किले में पहुचने के लिए चार दरवाजों सूरजपोल ’गणषपोल ’अखेपरोल और हवापरोल से गुजरना पडता है।
मंदिर ’मकबरे -मस्जिद -दरगाह’ स्तंभ व छतरियाँ:-
* प्रारम्भिक गुप्तकालीन मंदिर सपाट छत वाले होते थे। झालरापाटन शीतलेष्वर महादेव का मंदिर इसी परम्परा के अंतर्गत आता है।
* शीतलेष्वर मंदिर राजस्थान का ऐसा सबसे पुराना मंदिर है। जिसकी स्थापना तिथि 689 ई. निष्चित रूप से ज्ञात है।
* औसियाँ(जोधपुर) में 8वीं से 12वीं शताब्दी तक सच्चिया मंदिर ’सूर्य मंदिर ’ ऐ वैष्णव मंदिर ’हरिहर तथा महावीर मंदिर (जैन मंदिर)की स्थापना हुई।
* गुर्जर प्रतिहार शैली का सबसे अंतिम व सबसे श्व्य मंदिर किराड का लगभग 1016 ई. में बना सोमेष्वर मंदिर है।
* अदभुद नाथ जी का मंदिर (नागदा)विषाल प्रतिमाओं के लिए प्रसिध्द है।
* गोकुलचन्द पारीक ने पुष्कर (अजमेर)के ब्रह्मा जी के मंदिर का निर्माण कराया था।
* देलवाडा के जैन मंदिर तथा किराडू का सोमेष्वर महादेव का विषाल मंदिर गुजराती कला के अनुपम उदाहरण है।
* महाराणा कुम्भा (1433-1460ई.) के उदय ने राजस्थानी स्थापत्य कला का पुर्नजन्म दिया उन्होनें कुम्भलगढ ’चित्तौडगढ और अचलगढ में कुम्भ स्वामी नाम से विष्णु मंदिर बनवाये।
मूर्तिकला:-
* श्रतपुर के नौंह गांव में सन 1933 में जाखबाबा की 8 फीट 8इंच आकार की विषालकाय प्रतिमा खोजी गई जिसे वहाँ आज श्ी पूजा जाता है।
* प्राचीन मत्स्य प्रदेष की राजधानी विराट नगर तथा बैराठ (जयपूर) बौध्द धर्म का सांस्कृतिक केन्द्र बना।
* कारलाइल ने वर्ष 187-73 में रूपवास ( श्रतपुर) से चक्रधर विष्णु की द्विभुजी की 22 फीट लम्बी प्रतिमा एंव सर्पकण बलराम रेवती की 19 फीट लम्बी प्रतिमा गुप्तकाल का सवेश्रेष्ट उदाहरण है।
* जयपुर की मुर्तिकला को जीवित रखने और इसे वर्तमान व्यावसायिक रूप में विकसित करने का श्रेय यहाँ के स्कुल आफ आर्ट को जाता है।
* सूरतगढ के पास रंगमहल के अंतराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त प्राचीन स्थल से स्वीडन की पुरावेत्ता श्रीमती डाॅ. हन्ना रिड को मिट्टी का बना एक कटोरा मिला जो आजकल स्वीडन के लुण्ड संग्रहालय में सुरक्षित है।
* नाथद्वारा के निकट ग्राम ’ मोमेला ’ में हेसकेटा अथवा मृण मूर्तियां बनाने वाले कुंभकार रहते है।
चित्रकला:-
* स्वर्गीय आन्नद कुमारी स्वामी ने 1916 में अपनी पुस्तक राजपुत पेण्टिंग में सबसे पहले राजस्थानी चित्रकला का वैज्ञानिक विभाजन किया।
* राजस्थानी चित्रकला का उदभव अप्रभ्रंष शैली से गुजरात और मेवाड में कष्मीर शैली के प्रभाव से हुआ ।
* गुजरात का सूल्तान महमूद बेगडा और मेवाड के महाराणा दोनों ’ कला के प्रमुख आश्रय दाता थे।
* महाराणा प्रताप की राजधानी चावड में मेवाड की चित्रकला का स्वरूप् चावड शैली में विकसित हुआ।
* चांड में 1605 ई. में चित्रित रागमाला का विकास हुआ।
* महाराणा उदयसिंह ने सामारिक महत्त्व के कारण उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया जहाँ उदयपुर शैली समृध्द हुई तथा 1640 ई. में चित्रित नायिका भेद सम्बंधी सैट तथा रसिक प्रिया सैट और 1648 ई. में साहिबदीन द्वारा चित्रित शगवत पुराण उदयपुर शैली के उत्कृष्ट उदाहरण है।
* तिब्बती यात्री तारानाथ ने 7 वीं सदी में मरूप्रदेष में श्रीरंगधर नामक चित्रकार का उल्लेख किया है।
* ढोलामारू तथा 1610 ई. में चित्रित शगवत पुराण जोधपुर शैली के प्रमुख उदाहरण है।
* मेवाड में राणा जगत सिंह प्रथम (1628-1652 ई.) का काल चित्रकला के विकास का सर्वश्रेष्ठ काल था।
* मेवाड के 1628-1652 ई. काल में रागमाला (1628 ई.) रसिक प्रिया (1628-1630 ई.) गीतगोविन्द (1629 ई.) शगवद पुराण (1648 ई.) तथा रामायण (1649 ई.) आदि विषयों के लघु चित्रों का विकास हुआ।
* राणा जगत सिंह कालीन प्रमुख चित्रकार साहबदीन तथा मनोहर थे । जिन्होने मेवाउत्र चित्रकला को हर प्रकार से मौलिकता प्रदान करने का उल्लेखनीय कार्य किया ।
* सवाई प्रतापसिंह (1779-1083)के कला -प्रेमी होने के कारण उनके काल में चित्रकला की विषेष उन्नति हुई।
भित्ति -चित्र एंवं श्ूमि चित्र:-
आकारद चित्र:-
* इस प्रकार के भित्ति एंव श्ूमिचित्रों में दीवारों ’चबूतरों ’ अनाज की कोठी ’ चूल्हा-चक्की आदि पर घर की औंरतें एंव लडकियां खडिया मिट्टी से अनेक चित्र अंकित करती है।
* पथवारी -राजस्थान में पथवारी के निर्माण की आदिकालीन परम्परा है पथवारी पथ की रक्षक होती है। अतः तीर्थयात्रा जाते समय पथवारी की पूजा की जाती है। इसके चबूतरे के चारोें ओर चित्र अंकित होते है।
* देवरा – देवरा खुले चबूतरे पर बना एक त्रिकोणात्मक आकार का होता हैै।जो कि रामदेवजी ’ श्ैरू जी और तेजाजी आदि लोक देवताओं को समर्पित होते है।
* अमूर्त सांकेतिक व ज्योमितीय अंलकरण:-
* सांझी – दषहरे से पूर्व नवरात्रा पर कुवांरी लडकियां लगातार पंद्रह दिन तक दींवारों पर गोबर से सांझी का आकार उकेरती है।
* कन्याएं सामूहिक रूप से मिलकर दीवार पर गोबर से रेखाओं को उभार कर उनमें फूल की पंखुडियां ’ कांच के टुकडे ’ चूडी ’ कौडी या कागज का प्रयोग कर एक चित्राकर्षक आकृति बनाती है।
* किषोरियां सांझी को माता पार्वती का रूप मानकर अच्छे वर एंव घर की कामना के लिए उनकी पूजा करती है।
* मांडणा -मांडणा गेरू चूना या खडिया से गोबर लिपी सतहों पर विभिन्न उत्सवों जैसे- विवाह उत्सव पर गणेष जी का मांडणा ’ लक्ष्मी जी के पैर ’ बच्चे के जन्म पर गलीचा ’ तीज पर चैक ’ लहरिया ’ फूल बगीचा आदि मांडणे प्रमुखतः बनाए जाते है।
* मांडणों का मुख्य उद्दैष्य अंलकृत करना होता है। परन्तु ये स्त्री के जीवन ’उनके हृदय में छिपी शवनाओं ’ श्य आकांक्षाओं को श्ी दर्षाते है।
कपडे पर अलंकृत चित्र
कड:-
* राजस्थान में पट -चित्रण की इस कला को फड नाम से जाना जाता है।
* फड शेपों के लिए बनवाई जाती है। जो कि उनके जीविकोपार्जन का साधन है।
* पट-चित्रण की इस शैली के प्रमुख चित्रकारों में श्ीलवाडा निवासी श्री लाल जोषी का नाम प्रमुख है।
* पिछवाई – पट -चित्रण के एक ओर प्रकार को पिछवाई कहा जाता है। जो कि श्री नाथ जी या श्री कृष्ण के पीछे स्थापित किया जाता है। तथा पृष्ट – श्ूमि का कार्य करता है।
कागजी पर चित्रकारी:-
* वर्तमान में कागज पर विभिन्न देवी देवताओं ’ सन्तों ’ मंदिरों के चित्र उत्कीर्ण होते है। इस प्रकार के चित्रित कागजों को (पाने) कहा जाता है।
* श्री नाथ जी का पाना जो चैबीस श्रृंगारों से सुसज्जित होता है। सभी पानों में सर्वाधिक कलात्मक होता है।
* विभिन्न देवी -देवताओं तथा सन्तों के चित्रों से युक्त इन पानों को लोग घर की दीवारों पर लटकाकर उनकी पूजा करते है।
लकडी पर निर्मित चित्र:-
* राजस्थान के चित्तौडगढ जिले का बस्सी नामक स्थान लकडी से निर्मित कलात्मक वस्तुओं के लिए प्रसिध्द है।
* राजस्थान में बसें खाती ’ खेरादी ’ सुनार जाति के लोग लकडी की कारीगरी के लिए प्रसिध्द है जो गणगौर ’हिंडोला ’ विमान ’ काबड ’मोर चैपडा (श्रृंगारदान) चैकी (बाजोट)आदि लकडी की कलात्मक वस्तुओं के निर्माण के लिए प्रसिध्द है।
* कावड पर लकडी से निर्मित मंदिरनुमा कलाकृति होती है। जिसमें कई द्वार बने होते है। सभी द्वार या कपाट चित्रित होते है।
* कावड पर महाभारत ’ रामायण -कृष्ण लीला ’हनुमान जी ’ लक्ष्मी जी ’ ब्रह्मा जी तथा लोकदेवताओं राम देव जी ’पाबूजी ’तेजाजी आदि के चित्र चित्रित होते है।
पक्की मिट्टी पर चित्रकारी:-
विभिन्न तीज -त्यौहार जैसे दीपावली पर हटडी ’ गणेष पूजन हेतु कलष ’ गंगापूजन हेतु पंचमुखी घडा ’करवा चौथ पूजन हेतु करवा आदि मिट्टी से निर्मित पात्र होते है। तथा इन पर विभिन्न रंगों से रंग कर कलात्मक चित्रकारी की जाती है।
मानव शरीर पर चित्रकारी (गोदाना):-
मानव शरीर को सुन्दर दिखाने हेतु चित्रकारी की कला राजस्थान में प्राचीनकाल से चली आ रही है।
राजस्थान के ग्रामीण अंचल में महिलाएँ शरीर पर विभिन्न प्रकार के फूल ’ जन्तु या किसी का नाम खुदवाती है। तथा पुरूष श्ी कुछ मात्रा में शरीर को खुदवाते है।
राजस्थानी साहित्य और साहित्कार
राजस्थान के प्रसिध्द साहित्यकार:-
चंदबरदायी:-
ये पृथ्वीराज चैहान तृतीय के दरबारी कवि थें।
पृथ्वीराज रासों ग्रन्थ के अनुसार इनका जन्म लाहौर में माना जाता है। श्ट्ट जाति के चारण कवि थे।
चंदबरदायी वीर रस के कवि थे। तथा इन्होने अपनी रचनाओं में वीर सर और श्रृंगार सर का संमजित समावेष कर कल्पना वैभव की अनूठी झांकी प्रस्तुत की है।
पृथ्वीराज राठौड (पीथल):-
अकबर के दरबारी रत्नों में सुमार पृथ्वीराज राठौड राजस्थान के शीर्षरथ और सर्वश्रेष्ट कवियों में सुमार है।
बेलि क्रिसिन रूकमणी री ’ इनकी प्रसिध्द रचना है। तथा ठाकूर जी रा दूहा ’गंगाजी रा दूहा ’ गंगा लहसी दसम अरावत रा दूहा आदि इनकी अन्य रचनाएँ है।
श्रीधर:-
रणमल्ल छंद इनकी प्रसिध्द रचना है। तथा सप्तषती और कवित्र शगवत इनकी अन्य रचना है।
पदमनाभ:-
ये जौलार के चैहान शासक अखैराज के राज्याश्रित कवि थे।
सं. 1512 में रचित ’ कान्हडदे ’ और अलाद्दिन के मध्य युध्द का प्रभावी वर्णन है।
ईसरदास बारहट की प्रसिध्द रचना हालाँ झालां री कुडलियाँ है।
गयण पुराण’ गुण आगम ’ गुण वैराट ’गुण रासलीला हरिरस ’ गुण निधांतत ’ गुण भागवत हंस ’ देवियाण आदि इनकी प्रसिध्द रचनाएँ है।
करणीदान:-
सूरज प्रकाष इनकी प्रसिध्द रचना है।
कविराज बांकी दास:-
बांकीदास री ख्यात इनकी प्रसिध्द रचना है।
ये महाराणा मानसिंह के दरबारी कवि थे।
सूर्यमल्ल मिश्रण:-
इनका जन्म बूंदी 1872 में चारण कुल में हुआ था।
इनको बूंदी राज्य का आश्रय प्राप्त था।
संवत 1897 में रचित वंष भास्कर इनकी प्रसिध्द रचना है तथा ही वीर सतसाई इनका दूसरा प्रसिध्द ग्रंथ है।
ये वीर सर के कवि थे।
मुहणोत नैणसी:-
राजपूताने का अबुल फजल नाम से प्रसिध्द मुहणोत नैणसी का जन्म संवत 1667 ई. में हुआ था।
नैणसी री ख्यात इनकी प्रसिध्द रचना है।
राजस्थानी हस्त कला
कपडा बुनाई ’ रंगाई व छपाई:-
* राजस्थान में उत्कृष्ट कपडें में सूत और सिल्क के तानेबाने का कैथून मांगरोल (कोटा) का मसूरिया ’ तनसुख ’ मथनियाँ(जोधपुर) की मलमल ’ जैसलमेर और बीकानेर की ऊन ’ प्रसिध्द है जो कि अंगखा ’ पाजामा ’ पगडी ’ पेचा ’ सेला ’साफा ’ओढनी व कुर्ती -कांचली आदि वस्त्र बनाने में काम आते है।
* कपडे की रंगाई का काम करने वाले कारीगरों को नीगर या रंगरेज कहा जाता है।
* अजमेर -मेरवाडा की औरते लाल ओढनी तथा नीले काले मिश्रित रंग के घाघरे पहनती हैं जो कि मीणा जाति महिलाओं की वेषभूषा है।
* राजस्थान का बंधेज या मोठला सम्पूर्ण भारत में प्रसिध्द है।
* पोमचा जज्जा स्त्री द्वारा पहने जाने वाला पीले रंग का वस्त्र होता है।
* शेखावाटी ’ पेच वर्क ’ के लिए प्रसिध्द हैं जिनमें अनेक रंगों के कपडों को विविध कलाकृतियों में काट कर कपडें पर सिलाई की जाती है।
* महाराजा सवाई जयसिंह के समय राजस्थान में जरी का काम सूरत से जयपूर लाया गया था ।
* राजस्थान कपडों पर सांगानेरी छपाई के लिए सम्पूर्ण देया में प्रसिध्द है।
* मीनाकारी:-
* राजस्थान में मीनाकारी की कला को प्रथम बार लाहौर से जयपुर लाने का श्रेय जयपुर के महाराजा मानसिंह प्रथम को है।
* प्रतापगढ काँच पर मीनाकारी की थेवा कला के लिए के लिए प्रसिध्द है।
* थेवा कला के लिए महेष सोनी ’ रामप्रसाद सोनी ’ रामविलास ’ जगदीष सोनी तथा बेनीराम को राष्ट्रीय एंव राज्य स्तरीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
* बीकानेर के मीनाकार कागज जैसे पतले पत्तर पर भी मीनाकारी करने में पारंगत है।
* चाँदी का काम:-
* चाँदी एक बहुउपयोगी धातु है। प्राचीन काल में जिससे राजा-महाराजा एंव सम्पन्न लोंगों के उपयोग की वस्तुएं तैयार की जाती थी।
* बीकानेर चाँदी के डब्बे ’ डिब्बियां ’अफीम दानियां ’ सिगरेट ’ केस ’ किवाड जोडिया आदि बनाने के लिए प्रसिध्द है।
* उदयपुर के सिगलीघर घरना के लोग चाँदी के पषु -पक्षी शस्त्रों की मूंठे आदि बनाने के लिए प्रसिध्द है।
* धातु की कलाकृतियाँ:-
* जयपुर पीतल के बर्तनों पर मुरादाबादी काम के लिए प्रसिध्द है।
* डदयपुर व्हाइट मैटल के बडे आकार के पषु पक्षी ’ फर्नीचर एंव अन्य कलाकृतियाँ बनाने के लिए प्रसिध्द है।
* अलवर तलवार ’दुरी कटारों की मूंठे ’ डिब्बियां ’पानदान ’ हुक्को आदि पर कोफूत और तहनिषा के काम के लिए प्रसिध्द है।
* ब्लू पाॅटरी:-
* ब्लू पाॅटरी काम राजस्थान में आगरा और दिल्ली से जयपुर लाया गया ।
* भारत में मुगल बादषाहों का सम्बन्ध ब्लू पाॅटरी से सर्वप्रथम हुआ ’ इससे पूर्व यह कला चीन और फारस में प्रचलित थी।
* ब्लू -पाॅटरी पात्रों पर की जाने वाली कलात्मक कार्यो को कहा जाता है।
* महाराजा सवाई जयसिंह के समय दिल्ली ’ आगरा के पप पाॅटरी का काम करने वाले चूडामन तथा बजाना के कालू राम जयपुर आये । जिन्हें महाराजा रामसिंह के समय दिल्ली के भोला नामक व्यक्ति द्वारा ब्लू पाॅटरी का काम सिखाया गया।
* कृपाल सिंह शेखावत को पाॅटरी के काम को पुनः स्थापित करने के लिए जाना जाता है। ये पद्यश्री सम्मान से सम्मानित है।
* जयपुर के गोपाल विष्व विख्यात ब्लू -पाॅटरी के सिध्द हस्त षिल्पी है।
हस्त कला से सम्बन्धित अन्य महŸवपूर्ण तथ्य:-
* ऊट की खाल पर मीनाकारी या हस्त कला के लिए मोहम्मद हनीफ उसता प्रतिभाषाली कलाकार है।
* ब्ीकानेर ऊट की खाल के बने कुप्पों पर मुनव्वत के काम के लिए प्रसिध्द है।
* पत्थर का काम:-
* राजस्थान के पुरा स्थलों से शुंग’ कुषाण ’गुप्त एंव मध्य युग शैली की प्रतिमाए उपलब्ध हो चूकी है।
* धोलपुर से लाल ’ श्रतपुर से गुलाबी ’ डूंगापुर से हरा ’ काला ’ मकराना से सफेद संगमरमर ’ जोधपुर से बदामी ’ श्ैंसलाना से काला संगमरमर ’ कोटा से स्लेटी पत्थर एंव जौलार से गे्रनाइट खानो से उपलब्ध होता है। जिनसे प्रतिमाए बनती है।
* लाख का काम:-
* जयपूर के अयाज अहमद लाख के कार्य के लिए प्रसिध्द है।
राजस्थान: मृदा संसाधन
मिट्टी
* मिट्टी जैव मण्डलीय स्थल का सबसे ऊपरी व महŸवपूर्ण तत्व है। जो धरातलीय चट्टानों के अपक्षय ’ वनस्पति ’ असंख्य जीवों एंव जलवायू के बीच होने वाली शैतिक रासायनिक एंव प्राकृतिक क्रियाओं का परिणाम है।
* जिसे हम मिट्टी कहते है। वे साधारणतयः स्तरीकृत ’आग्रेय और परिवर्तित चट्टानों का चूरा है। जो क्षरणीकरण या नग्नीकरण की शैतिक ’रासायनिक एंव जैविक क्रियाओं जैसे तापमान ’वर्षा ’हवा ’हिमवर्षा ’नदियों का प्रवाह एंव मानवीय क्रियाओं द्वारा छोटे -छोटे टुकडा में विभाजित कर दी जाती है।
* मिट्टी निर्माण में आधारी चट्टानें ’ स्थानीय जलवायु ’ जैविक पदार्थ ’ स्थालाकृति और मिट्टी के विकास की अवधि आदि सहायक कारक है।
* मिट्टी में पाये जानेे वाले तत्वों में नाइट्रोजन ’ आॅक्सीजन ’ सिलीकाॅन ’एल्यूमिनियम ’ लोहा आदि प्रधान तत्व है।
* मिट्टिीयों में जैविक एंव वनस्पतिक पदार्थ मिट्टी को उर्वरा शक्ति प्रदान करते है।
मिट्टियों के प्रकार:-
* मिट्टी के शैतिक गुणों ’रंग ’गठन ’सरंचना और कृषि में उसकी उपयोगिता के आधार पर राजस्थान की मिट्टियों का वर्गीकरण इस प्रकार है।
* रेतीली या मरूस्थलीय मिट्टी:-
* इस प्रकार की मिट्टी पष्चिमी राजस्थान के जिलों जैसलमेर ’बाँडमेर ’ जोधपुर ’बीकानेर ’श्री गंगानगर ’ हनूमानगढ ’चूरू ’नागौर और झुंझुनू जिलों के अधिकाष श्ू- शग पर पायी जाती है। यह मिट्टी पुनः निम्न शगों में विभाजित की जा सकती है।
* रेतीली बलुई मिट्टी:-
* यह मिट्टी राजस्थान के रेगिस्तानी जिलों जोधपुर ’जैसलमेर ’बाँडमेर ’ ’बीकानेर ’श्री गंगानगर ’ हनूमानगढ ’चूरू ’आदि जिलों में पायी जाती है।
* राजस्थान के लगभग 38 प्रतिषत श्ू- शग पर इस प्रकार की मिट्टी पाई जाती है।
* इस मिट्टी के कण मोटे तथा अलग-अलग होते है। जिसकी वजह से इनके मध्य रिक्त स्थान अधिक होता है।
* इस मिट्टी में पानी तथा नमी रोके रखने की शक्ति बहुत ही कम होती है।
* इस मिट्टी वाले समस्त क्षेत्र में वर्षा 10 से.मी से श्ी कम होती है।
* कृषि के लिए यह मिट्टी उपर्युक्त नहीं मानी जाती है।
श्ूरी रेतीली मिट्टी:-
* मरूस्थलीय श्ू- शगों में पाई जाने वाली इस मिट्टी का रंग श्ूरा होता है। तथा यह मुख्यतः राज्य के जौलार ’ जोधपुर ’ नागौर ’ पाली ’ बाडंमेर ’ चूरू और झंुझुनूं जिलों के कुछ शगों में पाई जाती है।
* इस मिट्टी में नाइट्रोजन तथा कार्बनिक पदार्थो की कमी होती है। तथा जल की कमी होती है।
* खाद एंव सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर इस मिट्टी में गेंहूं ’ जौ ’ चना आदि फसलों को उगाया जा सकता है।
* इस मिट्टी में मक्का ’ ज्वार ’ बाजरा ’ मोट आदि बोये जाते है।
लाल दुमट मिट्टी या लोमी मिट्टी:-
* लाल रंग युक्त इस मिट्टी के कण बारीक होते है। जिसमें जलधारण क्षमता अधिक होती है।
* यह मिट्टी दक्षिणी राजस्थान के डूंगरपूर ’ बाँसवाडा ’ उदयपूर ’ और चिŸाौडगढ जिलों के कुछ शगों में पाई जाती है।
* इस मिट्टी में लौह आॅक्साइड के कणों की अधिकता के कारण इस मिट्टी का रंग लाल हो जाता है।
* इस मिट्टी में नाइट्रोजन ’फास्फोरस ’ और कैल्षियम लवणों की मात्रा मक होती है।
* उचित सिंचाई व्यवस्था और रासायनिक खाद देने से इस मिट्टी में गेंहू ’ जौ ’ चना ’कपास ’मक्का ’ गन्ना ’ आदि की अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है।
* काली मिट्टी:-
* यह मिट्टी उदयपूर संभाग के डूंगरपूर ’ बाँसवाडा ’प्रतापगढ ’कुषलगढ’ पूर्वी कोटा ’ बूँदी व झाालावाड क्षेत्रों में पायी जाती है।
* इस मिट्टी के कण अपेक्षाकृत अधिक बारीक होते है।तथा जल धारण की क्षमता अधिक होती है। श्ीगने पर यह मिट्टी चीकनी व मुलायम हो जाती है। तथा सुखने पर कठोर तथा अधिक सुखने पर इसमें दरारें पडे जाती है।
* यह मिट्टी चावल ’कपास एंव चने की फसल के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती है।
* पर्वतीय मिट्टी:-
* यह मिट्टी अरावली पर्वत श्रृंखला के नीचे के शगों में मिलती है।
* इस मिट्टी का रंग लाल ’ पीला ’ श्ूरा होता है।
* इस मिट्टी की पर्त बहुत कम गहराई वाली होती है। इसमें कुछ ही गहराई के बाद चट्टानी धरातल निकल आता है। जिससे इस श्ूमि पर उगने वाले पौधे की जडें इन चट्टानी श्ू- शग को श्ेदकर धरातल में अधिक गहराई तक नहीं जा पाती है।
* यह मिट्टी उदयपुर ’ सिरोही ’ अजमेर ’ पाली ’ और अलवर जिलों के पहाडी शगों में पायी जाती है।
* जलोढ या कछारी मिट्टी:-
* यह मिट्टी राजस्थान के पूर्वी जिलों श्रतपूर ’ धौलपूर ’ दौसा ’जयपुर ’ सवाई माधोपूर सहित गंगानगर जिले के मध्यवर्ती शगों में पायी जाती है।
* इस मिट्टी में नाइट्रोजन और ह्मूमस की कमी पायी जाती है। लेकिन पोटाष ’ फाॅस्फोरस ’चूना ’लोहा आदि अनेक पदार्थो की अधिकता होती है।
* इस मिट्टी में उर्वरा शक्ति अधिक होती है। तथा गेंहू ’ चावल ’ कपास ’सरसों और तम्बाकू सहित कई फसलें आसानी से पैदा की जा सकती है।
* सीरोजम मिट्टी:-
* पीले – श्रे रंग वाली इस मिट्टी के कण मध्यम मोटाई वाले होते है।
* इस मिट्टी में नाइट्रोजन तथा कार्बनिक पदार्थो की कमी होती है। अत: इसकी उर्वरा शक्ति कम होती है।
* यह मिट्टी बारानी खेती के लिए उपयुक्त होती है।
* यह मिट्टी राज्य के पाली ’ नागौर ’ अजमेर तथा जयपुर जिले के विस्तृत श्ू- शग पर पायी जाती है।
* इस मिट्टी कों धूसर मरूस्थलीय श्ूमि के नाम से जाना जाता है।
* पीली – श्ूरी रेतीली मिट्टी ’ चुना मिश्रित पट्टी की परत युक्त होती है।
* लवणीय मिट्टी:-
* यह मिट्टी राज्य के बाडमेर व जालौर जिलों सहित गंगानगर ’ श्रतपूर ’ कोटा जिलों के अधिक सिंचाई वाले क्षेत्रों में पाई जाती है।
* इस मिट्टी में लवणीय तत्वों की मात्रा अधिक होने के कारण इस मिट्टी की उर्वरा शक्ति बहुत कम होती है। अतः यह कृषि के लिए उनुपयुक्त मानी जाती है।
* इस मिट्टी में चारागाह ’ प्राकृतिक झाांडियां एंव बरसाती पेड -पौधे ही उग सकते है।
* ऐसे स्थल जहाँ निरंतर पानी का जमाव होता है। में इस मिट्टी की मात्रा अधिक बढ जाती है।
* जिप्सम का अधिकाधिक उपयोग कर इस मिट्टी को उपजाऊ बनाया जा सकता है।
* रेगिस्तान का मार्च:-रेगिस्तान का किन्ही कारणों से आग बढना । मिट्टी का सर्वाधिक अवनालिका अपरदन -चम्बल नदी द्वारा होता है।