राजस्थान की सामाजिक व्यवस्था G.K. RAJASTHAN

राजस्थान की सामाजिक व्यवस्था

राजस्थान में भारत के विभिन्न जातियों नें आकार यहाँ की वीर भूमि को अपना अधिवास बनाया है। तथा अपनी रीति रिवाजों प्रथाओं  वेष भूषाओं का राजस्थानी सभ्यता में समावेष किया तथा राजस्थानी रीति रिवाजों प्रथाओं व भूषाओं कांे अपनाया राजस्थान सभ्यता व संस्कृति अति प्राचीन होने के साथ साथ वैदिक परम्पराओं का निवाहन करती आयी है। राजस्थान की रिति रिवाज व प्रथाए निम्न है।

जन्म सें संम्बन्धित रिति रिवाज

गर्भादान इस रिवाज के अन्तर्गत  जब नवविवाहिता प्रहली बार गर्भधारण करती है। उसकी जानकारी परिवार के सदस्यो को होती है। तो परिवार में खुषी का आलम जागृत होता है।

बच्चा जन्म:-

जब गर्भ धारित महिला बच्चे को जन्म देती है। तब वह जच्चा कहलाती है। तथा पुत्र के जन्म पर काॅसे की थालें बजाई जाती है। जों लडके कें जन्म की सूचना होती है। जच्चा गृह में तलवार रखी जाती है। जो बच्चे को दृढ एंव संघर्षमयी बनाने का प्रतीक है।
पनघट (कूप) पूजन:-बच्चे के जन्म के कुछ दिन या महिनों बाद कूप पनघट पूजन का संस्कार होता है। जिसमें महिलाएॅ बच्चे की माँ को गीत गाते हुए कूए पर लेजाती है। तथा कुँए का पूजन कराती है। इसे जलवा पुजन भी कहते है।

वैवाहिक रीति -रिवाज व रस्में

सगाई:-

जब किसी व्यक्ति को अपनी पुत्री के विवाह हेतु कोई लडका पसंद आ जाता है। तब उसे विवाह हेतु पक्का किया जाता हैं । जिसमे समाज के कुछ व्यक्तियों के समुह के बीच लडके के हाथ पर कुछ पैसा व नारियल रखे कर रोका जाता हैं इसे सगाई कहते है।

टीका:-

इस रिवाज के अन्तर्गत वर पक्ष वाला व्यक्ति अपने सगे संबंधियों दोस्तांे को आंमत्रित करता है। तथा वधु पक्ष वाला व्यक्ति वहाॅ पहुॅच कर अपने सामथ्र्य के अनुसार वर को कुछ भेंट करता है।

बान बैठना:-

इस रिवाज के अंतर्गत वर व वधु को अपने अपने घर पर हल्दी व आटे का उबटन (हल्दी  मलना ) किया जाता है। जिससे वर व वधु में सुन्दरता का निखार आता है।

थरी:-बरी पलडा –

विवाह हेतु वर पक्ष वधु के लिए जो कपडा व जेवर लाता हैं।

मोड बांधना:-

इस रस्म केे अंतर्गत वर को उबटन के बाद नये कपडें व सहारा (कलंगी)पहनाई जाती है।

काकन-डोरा:-

इस रस्म के अन्तर्गत वर व वधु के दाँहिने हाथ में एक डोरी बाँधी जाती है। जिसमें एक कौंडी लोहे का छल्ला आदि बंधे होते है। जिसे विवाह सम्पन्न होने के बाद वर पक्ष के घर एक दुसरे के द्वारा खोला जाता है।

सामेला:-

इस रस्म के अंतर्गत जब बारात वधु पक्ष के घर पहुँचती है। बारात का स्वागत सत्कार करते है। इसे सामेला या ठुमाव कहते है।

मिलनी:-

इस रस्म के अंतर्गत प्रत्येक बाराती को वधु पक्ष की तरफ से स्मृति रूप में कुछ धन दिया जाता है।

बंढार:-

इस रस्म के अन्तर्गत विवाह के दुसरे दिन वधु पक्ष अपने सगें सम्बंधियों को आमांत्रित कर एक सामुहिक प्रीतिभोज का आयोजन करता है।

गौना:-

इस रस्म के अन्तर्गत वधु की विदाई होती है। जब वधु बडी होती है। तो विवाह अवसर पर ही ससुराल भेज दी जाती है। मगर जब वधु की आयु कम होती है। तो उसे कुछ वर्ष वधु पक्ष के यहाँ ही रखा  जाता है। तथा बडी होने पर वर ससुराल आकार वधु ले जाता है। इसे गौना कहते है।

 शोकाकुल या दुखद अवसरों के रीति रिवाज

मनुष्य के जीवन में खुषी एंव गम दोनों के लिए अलग अलग रीति रिवाज होते है। तथा मनुष्य द्वारा उनका निर्वाहन आवष्यक रूप से किया जाता है। षोक या गमी होने पर मृतक की आत्म-षान्ति हेतु निम्न रस्मों का निर्वाहन किया जाता है।

बैकुण्डी:-

व्यक्ति की मृत्यू होने पर बाँस की बनी काॅठी (मृत्यु शैया)

सांतरवाडा:-

मृतक का अंतिम संस्कार होने तक घर व पडौस में चूल्हा नहीं जलाया जाता है। अंत्योष्टि क्रिया सम्पन्न होने के उपरांत अंत्योष्टि में शामिल व्यक्ति स्नान करें कपडा बदलकर मृतक के घर ढाॅढस बंधाने जाते है। यह प्रक्रिया सांतरवाडा कहलाती है।

मौसर (मृत्यु शेज “कार्ज “ नुक्ता “ बारहवाॅ):-

मृतक के बारह या तेरह दिन होने पर शोकाकुल परिवार द्वारा मृत्यु -भोज का आयोजन किया जाता है। जिसमें ब्राह्मणों का भोजन कराया जाता है।

पगडी रस्म:-

मौसर के दिन मृतक के ज्येष्ट पुत्र को निकटतम सम्बन्धियों द्वारा पगडी बाँध कर मृतक का उŸाराधिकारी चुना जाता है।

जौसर:-

जिन व्यक्तियों के पिछे कोई नहीं होता है। वे अपने जीते जी अपना मौसर खुद कर जाते है। इसे जौसर कहते हैं

श्राद्ध:-

आष्विन माह की जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु होती है। श्राद्ध उसी दिन मनाया जाता है।

डावरिया:-

राजपूतना में राजा महाराजा एंव जागीदार अपनी कन्याओं के विवाह के अवसर पर दुल्हन के देहज के साथ कॅुवारी कन्या भी भेजते थे। ये कुवारी कन्याएॅ डावारिया कहलाती हैं ।

नाता प्रथा:-

इस प्रथा के अंतर्गत पत्नी पति से परस्पर सहमति के आधार पर अपने पति को छोडकर किसी अन्य पुरूष के साथ घर बसा सकती है।

पुरूष वेषभूषा

पगडी:-

राजस्थान में पगडी को गौरव और मान प्रतिष्टा का प्रतीक माना जाता है। केसरिया रंग त्याग एंव वीरता का प्रतीक है। जब वीर योद्धा रणक्षेत्र के लिए जाता था तो वे केसरिया पगडी धारण करते थे ।

अंगरखी:-

अंगरखी को बुगतरी नाम से भी जाना जाता है। विभिन्न आकार व रंगों के अनुसार अंगरखियों को मिरजाई तनसुख “डगला “गाबा “दुतई “कानों गदर आदि नामों से जाना जाता है।

चोगा:-

चोगा एक मखमली ऊनी रेषमी वस्त्र होता है। जो अंगरखी के ऊपर पहना जाता है।

पटका
पटका एक लम्बा वस्त्र होता था जो कि अंगरखी या जामा के ऊपर कमर पर बांधा जाता था जिसके अन्दर तलवार या कटार को घुसा कर रखा जाता था।
राजस्थान के जोधपुरी कोट व पेन्ट कांे पुरूषों की राष्ट्रीय पोषाक होने का गौरव प्राप्त है।
अंग्रजों के समय चूडभ्दार पायजामा के स्थान पर ब्रीचेस (बिरजस)काम आने लगा ।

स्त्रियों के परिधान

घाघरा:-

यह वस्त्र कमर से एडियों तक लम्बा होता था जो कपडे को कलियों में काटकर तथा चुन्नट के द्वारा ऊपर से संकरा तथा नीचे से चैडा बना होता था ।

कुर्ती एंव कांचली:-

षरीर के ऊपरी हिस्सें पर स्त्रियों कुर्ती तथा कांचली धारण करती थी । कुर्ती बिना बांह की तथा कांचली बांहयुक्त होती थी ।

ओंढनी:-

स्त्रियों घाघरा “कुर्ती एंव काॅचली को शरीर के अधोभाग एंव वक्षस्थल पर धारित करती थी । तथा सिर पर ओंढनी जो कि ढाई से तीन मीटर लम्बी तथा एक से डेढ मीटर चैडी होती थी को ओढती थी।

पोमचा:-

यह प्रायः पीले रंग की तथा लाल गोल कमल के फुल छपी हुई और किनारों पर लाल रंगी हुई आंढनी होती थी ।पोमचा प्रायः प्रसूता स्त्री को घाघरा कुर्ती कांचली के साथ उसके पीहर वालों की तरफ से आता है।

लहरियाॅ:-

राजस्थान में श्रावण माह में खासतौर से तीज के अवसर पर स्त्रियों द्वारा पहनें जानें वाला वस्त्र हैै। कुछ मुसलमान महिलाए चूडीद्वार पायजामें के ऊपर तिलगा नामक वस्त्र पहन कर ऊपर से चूंदडी ओंढती है।

राजस्थान आभूषण

पुरूषों के आभूषणों में हाथों में बाजूबंद “कानों में मुरकिया “लोंग “गलें में बलेवडा “हाथ में कडा “ऊंगलियों में अंगूठी “लोंग “झालें “देलकडी आदि प्रमुख आभूषण है।
राजस्थान में जयपुर “पन्नें की अंतराष्ट्रीय मण्डी के रूप में प्रसिध्द है।
स्त्रियाँ सुहाग के चिन्ह के रूप में बोर नामक आभुषण पहनती है। जो सिर पर धारण किया जाता है।
स्त्रियाँ सुहाग की दीर्घायू व खुषहाली के लिए लाख एंव हाथी दांत के बनें चूडें पहनती है।
पुरूष कानों में बारी के समान जेवर जिसे मुरकिया कहते है। पहनतें है।
स्त्रियाॅ गले में हार “बाजुओं पर बाजूबन्द “कलाई पर सोने व हीरे की चूडियाॅ सोने व चाॅदी के कडें “पायल “कमरबन्द आदि आभूषण धारित करती है।
स्त्रियाॅ गोखरू नातक आभूषण पहनती है।
कलाई में गोखरू के पास एक आभूषण पहना जाता है। जिसे पुन्छि कहते है।
महिलाएॅ गले में कीमती नंगों सें जडा एक विषिष्ट आभूषण पहनती है। जिसे तिमडिया कहते है।
राजस्थानी महिलाएॅ सावन एंव तीज के अवसर पर लहरिया नामक वस्त्र पहनती है।
चुनरी भांत की ओंढनी पर पषु “पक्षी “फल “तथा अन्य अलंकारिक अभिप्राय बनते है। जिसका पतला गोटा जमीन में तथा चैडा गोटा जिसे “ लम्पा “ कहते है। आंचल में लगाया जाता है।
आदिवासी महिलाओं का चाॅदी का हाल हालरों कहलाता है।

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